(प्रारंभिक परीक्षा : समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र- 2: सरकारी नीतियों एवं विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय) |
संदर्भ
सर्वोच्च न्यायालय में ‘निपुन सक्सेना बनाम भारत सरकार’ मामले में एमिकस क्यूरी और वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने सहमति की वैधानिक आयु को 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष करने की मांग की है। यह बहस किशोरों के संवैधानिक अधिकार, यौन स्वायत्तता एवं वर्तमान कानूनों की व्यावहारिकता को लेकर है।
सहमति की आयु : एक विश्लेषण
- सहमति की आयु वह न्यूनतम आयु है जिस पर कोई व्यक्ति कानूनी रूप से यौन संबंधों के लिए सहमति देने में सक्षम माना जाता है।
- भारत में यह आयु वर्तमान में 18 वर्ष है, जैसा कि बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो), 2012 और भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 में निर्धारित है।
- इसका अर्थ है कि 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति के साथ यौन संबंध (भले ही वह सहमति से हो) कानूनी रूप से अपराध माना जाता है।
भारत में संबंधित कानून
- पॉक्सो अधिनियम, 2012 : यह कानून 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए है। इसके तहत 16-18 वर्ष के किशोरों के बीच सहमति से बने यौन संबंध भी अपराध माने जाते हैं।
- आई.पी.सी. धारा 375 : बलात्कार की परिभाषा में 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति के साथ यौन संबंध शामिल हैं, चाहे वह सहमति से हो।
- पॉक्सो की धारा 19 : यौन अपराधों की अनिवार्य रिपोर्टिंग का प्रावधान है जो किशोरों को चिकित्सा सहायता लेने से रोकता है।
- आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 : इसने सहमति की आयु को 16 से बढ़ाकर 18 वर्ष किया था।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- भारत में सहमति की आयु लंबे समय तक 16 वर्ष थी।
- वर्ष 2012 के निर्भया कांड के बाद वर्ष 2013 में आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम के तहत इसे बढ़ाकर 18 वर्ष किया गया।
- यह बदलाव जस्टिस वर्मा समिति की सिफारिशों के विपरीत था, जिसने 16 वर्ष को बनाए रखने की सलाह दी थी।
- यह बदलाव बिना व्यापक बहस के लागू हुआ और किशोरों के बीच सहमति से बने संबंधों को भी अपराध की श्रेणी में ला दिया।
- इंदिरा जयसिंह ने सर्वोच्च न्यायालय में तर्क दिया है कि इस बदलाव के लिए कोई वैज्ञानिक या सामाजिक आधार नहीं था।
निपुन सक्सेना बनाम भारत सरकार मामला (2018)
- यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है जिसमें सहमति की आयु को 18 से घटाकर 16 वर्ष करने की मांग की गई है।
- इंदिरा जयसिंह ने तर्क दिया कि वर्तमान कानून किशोरों के बीच सहमति से बने रोमांटिक संबंधों को अपराध मानता है जो उनकी स्वायत्तता एवं परिपक्वता को नजरअंदाज करता है।
- उन्होंने 2017-2021 के बीच 16-18 वर्ष के किशोरों के खिलाफ पॉक्सो के तहत मुकदमेबाजी में 180% की वृद्धि का उल्लेख किया, जो प्राय: माता-पिता द्वारा अंतर-जाति या अंतर-धर्म संबंधों के खिलाफ दर्ज की जाती है।
सर्वोच्च न्यायालय में एमिकस क्यूरी के सुझाव
- सहमति की आयु को 18 से घटाकर 16 वर्ष किया जाए। 16-18 वर्ष के किशोरों के बीच सहमति से बने यौन संबंधों को पॉक्सो एवं आई.पी.सी. के दायरे से बाहर करने के लिए ‘क्लोज-इन-एज’ छूट लागू की जाए।
- पॉक्सो की धारा 19 के तहत अनिवार्य रिपोर्टिंग दायित्वों की समीक्षा की जाए, जो किशोरों को चिकित्सा सहायता लेने से रोकता है।
- किशोरों की यौन स्वायत्तता को मानव गरिमा का हिस्सा मानते हुए, उनकी सूचित सहमति की क्षमता को मान्यता दी जाए।
- उन्होंने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण जैसे सामाजिक डाटा का हवाला देते हुए कहा कि किशोरों में यौन गतिविधि असामान्य नहीं है और इसे अपराध मानना उनके संवैधानिक अधिकारों (अनुच्छेद 14, 15, 19 एवं 21) का उल्लंघन है।
ब्रिटेन का हालिया उदाहरण
- इंदिरा जयसिंह ने यू.के. के गिलिक रूलिंग का हवाला दिया, जिसके अनुसार किशोर अगर मानसिक रूप से परिपक्व हैं तो वे चिकित्सा एवं यौन संबंधी निर्णय स्वयं ले सकते हैं।
- भारत के पुट्टास्वामी गोपनीयता फैसले का भी उल्लेख किया गया, जिसमें गोपनीयता के अधिकार को निर्णय लेने की स्वायत्तता से जोड़ा गया।
भारत में सहमति की आयु कम करने का प्रभाव
- सकारात्मक प्रभाव
- किशोरों को सहमति से बने संबंधों के लिए अपराधीकरण से मुक्ति
- अंतर-जाति एवं अंतर-धार्मिक संबंधों में माता-पिता द्वारा दुरुपयोग की शिकायतों में कमी
- किशोरों को सुरक्षित चिकित्सा और परामर्श सेवाओं तक पहुंच में सुधार
- नकारात्मक प्रभाव
- शोषण के जोखिम में वृद्धि, खासकर कमजोर समुदायों में
- सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानदंडों के साथ टकराव, जो किशोर यौन गतिविधियों को अस्वीकार्य मानते हैं।
- कानूनी दुरुपयोग की संभावना, जहाँ सहमति का दावा दुरुपयोग को छिपाने के लिए किया जा सकता है।
चुनौतियाँ
- सामाजिक धारणाएँ : भारतीय समाज में किशोरों की यौन गतिविधियों को प्राय: नकारात्मक रूप से देखा जाता है।
- कानूनी जटिलताएँ : सहमति एवं शोषण के बीच अंतर को परिभाषित करना जटिल है।
- जागरूकता की कमी : किशोरों एवं माता-पिता में यौन शिक्षा व कानूनी अधिकारों की जानकारी का अभाव
- संवेदनशीलता : कमजोर समूहों, विशेष रूप से बालिकाओं, के शोषण का जोखिम।
आगे की राह
- यौन शिक्षा को बढ़ावा : स्कूलों एवं समुदायों में व्यापक यौन शिक्षा लागू की जाए।
- जागरूकता अभियान : किशोरों एवं माता-पिता को सहमति की आयु और उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया जाए।
- कानूनी सुधार : ‘क्लोज-इन-एज’ छूट को लागू करने के लिए कानून में संशोधन किया जाए।
- चिकित्सा सहायता : किशोरों के लिए सुरक्षित एवं गोपनीय चिकित्सा व परामर्श सेवाएँ सुनिश्चित की जाएँ।
- न्यायिक प्रशिक्षण : न्यायाधीशों और कानून प्रवर्तन अधिकारियों को सहमति तथा शोषण के बीच अंतर समझने के लिए प्रशिक्षित किया जाए।
- सामाजिक संवाद : किशोर के यौन स्वायत्तता पर खुली चर्चा को प्रोत्साहित किया जाए ताकि सामाजिक धारणाएँ बदली जा सकें।
- तार्किक निर्णय : युवा मनोविज्ञान, विज्ञान एवं सामाजिक आंकड़ों के आधार पर निर्णय लिए जाएं, न कि केवल नैतिक आधार से।
निष्कर्ष
भारत में सहमति की आयु को लेकर चल रही बहस एक संवेदनशील किंतु ज़रूरी विमर्श है। यह केवल कानून का मामला नहीं है बल्कि किशोरों की निजता, स्वायत्तता एवं यौन अधिकारों का भी प्रश्न है। यदि सही संतुलन एवं पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ यह बदलाव किया जाए, तो यह किशोरों के जीवन में कानूनी स्पष्टता, सम्मान व सुरक्षा ला सकता है।