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राज्यपालों द्वारा लंबित विधेयक : एक संवैधानिक मुद्दा

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व, संघीय ढाँचे से संबंधित विषय एवं चुनौतियाँ, स्थानीय स्तर पर शक्तियों और वित्त का हस्तांतरण तथा उसकी चुनौतियाँ)

संदर्भ

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई ने यह प्रश्न उठाया है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय को ‘संविधान का संरक्षक’ होने के बावजूद चुपचाप बैठना चाहिए जबकि राज्यपाल वर्षों तक राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को रोककर लोकतांत्रिक व्यवस्था को बाधित करते रहें। यह बहस विशेष रूप से तमिलनाडु मामले से जुड़ी है जहाँ राज्यपाल ने चार वर्षों तक कई महत्वपूर्ण विधेयकों पर कोई निर्णय नहीं लिया है।

हालिया मुद्दा

  • राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति के बिना कानून नहीं बन सकते हैं।
  • कई राज्यों में राज्यपाल लंबे समय तक इन विधेयकों पर निर्णय नहीं लेते हैं जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया ठहर जाती है।
  • प्रश्न यह है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय इस प्रकार की निष्क्रियता पर दखल दे सकता है या इसे केवल राजनीतिक स्तर पर हल किया जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय का हालिया दृष्टिकोण

  • 8 अप्रैल, 2025 के निर्णय में अदालत ने कहा था कि यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल तीन महीने में कोई निर्णय नहीं लेते हैं तो विधेयक को ‘स्वीकृत’ माना जाएगा।
  • CJI गवई ने स्पष्ट किया कि न्यायालय सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता है किंतु यदि राज्यपाल वर्षों तक विधेयकों को रोककर रखते हैं तो न्यायालय चुप नहीं बैठ सकता है।
  • न्यायालय ने इसे संविधान के बुनियादी ढांचे और लोकतांत्रिक व्यवस्था से जुड़ा मामला माना है।

राज्य सरकारों का दृष्टिकोण

  • राज्य सरकारें मानती हैं कि राज्यपालों का यह रवैया जनता के जनादेश का अपमान है।
  • राज्यपालों द्वारा वर्षों तक विधेयक लंबित रखने से निर्वाचित सरकारों की नीति लागू नहीं हो पाती है।
  • कई राज्यों (जैसे- तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना) ने इस पर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है।

केंद्र सरकार का दृष्टिकोण

  • सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि इस प्रकार की समस्या राजनीतिक तरीके से सुलझाई जानी चाहिए।
  • उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री द्वारा प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से मिलकर राज्यपाल को कार्रवाई के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
  • उनका कहना था कि न्यायालय का कार्यकारी या विधायी क्षेत्र में प्रवेश संविधान के ‘शक्ति पृथक्करण’ के सिद्धांत के खिलाफ है।

राज्यपाल की जिम्मेदारी क्यों तय नहीं होती

  • राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त संवैधानिक प्राधिकारी हैं और प्रत्यक्ष रूप से जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं है।
  • संविधान में उनके लिए कोई निश्चित समयसीमा तय नहीं की गई है कि विधेयक पर कब तक निर्णय लेना है।
  • कई बार राजनीतिक कारणों से भी राज्यपाल निर्णय टालते हैं।

संविधान का मंतव्य

  • अनुच्छेद 200 और 201 : राज्यपाल के पास विकल्प है –
    1. विधेयक को स्वीकृति देना
    2. विधेयक  को अस्वीकृत करना
    3. राष्ट्रपति के पास भेजना
    4. पुनर्विचार हेतु राज्य विधानसभा को लौटाना
  • किंतु संविधान में समयसीमा का उल्लेख नहीं है, जिससे यह अस्पष्टता बनी रहती है।

संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

  • केशवानंद भारती मामला (1973) : न्यायिक समीक्षा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है।
  • NJAC केस (2015) : तीनों अंग; विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को अपनी सीमाओं में रहना चाहिए।
  • अप्रैल 2025 तमिलनाडु केस : न्यायालय ने पहली बार समयसीमा तय की।  

चिंताएँ

  • राज्यपाल की भूमिका का राजनीतिकरण होना
  • राज्यों की लोकतांत्रिक इच्छाओं का अनदेखा किया जाना
  • केंद्र-राज्य संबंधों में टकराव
  • न्यायपालिका की सीमा और दखलंदाजी का प्रश्न
  • समयसीमा तय न होने से शासन में अनिश्चितता

आगे की राह

  • संविधान में संशोधन करके राज्यपाल को विधेयक पर निर्णय के लिए समयसीमा तय करना
  • राज्यपाल की भूमिका को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना ताकि वे केवल संवैधानिक प्रमुख बने रहें, न कि राजनीतिक हितधारक
  • केंद्र और राज्य के बीच सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) को मज़बूत करना
  • न्यायालय को संतुलन रखते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया के संरक्षण की दिशा में कार्य करना
  • राजनीतिक दलों को इस मुद्दे को संवैधानिक मर्यादा के भीतर हल करना 
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