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डायर वुल्फ : विलुप्त प्रजाति का पुनर्जनन

(प्रारंभिक परीक्षा : अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम व सामान्य विज्ञान)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी- विकास एवं अनुप्रयोग, नैनो-टैक्नोलॉजी, बायो-टैक्नोलॉजी)

संदर्भ 

  • टाइम मैगज़ीन में ‘डायर वुल्फ’ (Dire Wolf) के पुनर्जनन का दावा किया गया। यह प्रजाति लगभग 12,500 वर्ष पूर्व विलुप्त हो चुकी थी। डायर वुल्फ को जॉर्ज आर.आर. मार्टिन की प्रसिद्ध काल्पनिक सीरीज ‘गेम ऑफ थ्रोन्स’ में भी देखा गया है। 
  • कोलोसल बायोसाइंसेज (Colossal Biosciences) नामक कंपनी का दावा है कि उसने प्राचीन डी.एन.ए. एवं आधुनिक जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से इस प्रजाति का ‘पुनर्जनन’ किया है। इस प्रोजेक्ट का नाम ‘डि-एक्सटिंक्शन’ है।

डायर वुल्फ : प्रजाति, आवास एवं विशेषताएँ

  • प्रजाति : Aenocyon dirus या Canis dirus 
  • आवास: हिमयुग के दौरान विशेषकर उत्तरी अमेरिका के जंगलों व घास के मैदानों में एवं दक्षिणी अमेरिका में 
  • शिकार : मैमथ, बाइसन एवं स्लॉथ जैसे बड़े शिकार 
    • यह एक विशाल मांसाहारी स्तनपायी था। 
  • रूपात्मक विशेषताएँ: सामान्य ग्रे वुल्फ की तुलना में डायर वुल्फ अधिक भारी (संभवतः 50-80 किग्रा), मजबूत जबड़े एवं विशाल शरीर
    • इनके शक्तिशाली जबड़े हड्डियों को भी चबा सकते थे। आधुनिक ग्रे वुल्फ (Canis lupus) का निकटवर्ती था किंतु इसका आकार एवं शारीरिक बनावट अधिक मजबूत थी।
  • विलुप्ति का कारण : हिमयुग के अंत में जलवायु परिवर्तन, शिकार की कमी एवं मानव गतिविधियाँ

कोलोसल बायोसाइंसेज का प्रोजेक्ट : डायर वुल्फ का पुनर्जनन

  • कोलोसल बायोसाइंसेज कंपनी विलुप्त प्रजातियों के पुनर्विकास या पुनर्जनन (De-extinction) के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग करती है। इस कंपनी ने डायर वुल्फ के तीन शावकों ‘रोमुलस, रेमस एवं खालेसी’ के जन्म की घोषणा की है। 
  • कोलोसल बायोसाइंसेज ने पहले भी वूली मैमथ एवं तस्मानियाई टाइगर जैसे विलुप्त प्राणियों के पुनर्जनन की योजना बनाई है।
  • हालाँकि, विशेषज्ञों का मानना है कि ये नए भेड़िए पूरी तरह डायर वुल्फ नहीं हैं बल्कि ये ग्रे वुल्फ के जेनेटिक रूप से संशोधित संस्करण हैं, जिनमें डायर वुल्फ की कुछ विशेषताएँ हैं। डायर वुल्फ एवं ग्रे वुल्फ में विकासक्रम के स्तर पर 2.5 से 6 मिलियन वर्षों का अंतर है और वे पूरी तरह से अलग वंश (जीनस) में आते हैं।

पुनर्जनन की प्रक्रिया और तकनीक

  • प्राचीन डी.एन.ए. का उपयोग: डायर वुल्फ के जीवाश्मों से प्राप्त प्राचीन डी.एन.ए. का विश्लेषण किया गया। हालाँकि, प्राचीन डी.एन.ए. प्राय: क्षतिग्रस्त एवं टुकड़ों में होता है जिसे सीधे क्लोनिंग के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता है।  
    • इसके लिए दाँत एवं आंतरिक कान की अस्थियों का प्रयोग किया गया। 
  • जीन एडिटिंग: प्राचीन डी.एन.ए. से डायर वुल्फ की विशेषताओं (जैसे- बड़ा सिर, मजबूत जबड़े एवं सफेद फर) को नियंत्रित करने वाले जीन की पहचान की गई। इसके बाद क्रिस्पर-कैस9 जीन एडिटिंग तकनीक का उपयोग करके ग्रे वुल्फ के भ्रूण में इन जीन को शामिल किया गया।
  • क्लोनिंग: संशोधित ग्रे वुल्फ कोशिकाओं को क्लोनिंग तकनीक के माध्यम से भ्रूण में विकसित किया गया, जिसे बाद में सरोगेट मादा भेड़िए में प्रत्यारोपित किया गया। इस प्रक्रिया से तीन शावकों का जन्म हुआ।

क्रिस्पर जीन एडिटिंग तकनीक

क्रिस्पर-कैस9 (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats: CRISPR) जीन एडिटिंग तकनीक डी.एन.ए. को सटीक रूप से विखंडित करने और संशोधित करने में सहायक होती है। इसका उपयोग इस प्रोजेक्ट में निम्नलिखित तरीके से किया गया:

  • जीन की पहचान: डायर वुल्फ और ग्रे वुल्फ के जीनोम की तुलना की गई। लगभग 19,000 जीनों में से 14 जीनों में 20 बदलावों को डायर वुल्फ की विशेषताओं के लिए जिम्मेदार पाया गया।
  • डी.एन.ए. में बदलाव: क्रिस्पर का उपयोग करके ग्रे वुल्फ के डी.एन.ए. में डायर वुल्फ के विशिष्ट जीन खंडों को शामिल किया गया।
  • नियंत्रित परिवर्तन: इस तकनीक ने सुनिश्चित किया कि केवल वही विशेषताएँ जोड़ी जाएँ जो डायर वुल्फ को परिभाषित करती थीं, जैसे- मजबूत जबड़े और बड़ा सिर।

अन्य प्रमुख बिंदु

  • वैज्ञानिक विवाद: विशेषज्ञों का कहना है कि डायर वुल्फ और ग्रे वुल्फ 25 लाख से 60 लाख साल पहले अलग-अलग प्रजातियों में बंट गए थे। इसलिए, नए भेड़ियों को पूरी तरह डायर वुल्फ कहना गलत हो सकता है। इन्हें ‘जेनेटिक रूप से संशोधित ग्रे वुल्फ’ कहा जा रहा है।
  • पुनर्जनन की परिभाषा: कोलोसल बायोसाइंसेज का मानना है कि पुनर्जनन का मतलब विलुप्त प्रजाति की विशेषताओं को पुनर्जनन करना है, न कि पूरी तरह उसी प्रजाति को पुनर्जनन करना। यह दृष्टिकोण वैज्ञानिक समुदाय में बहस का विषय है।
  • नैतिक प्रश्न: विलुप्त प्रजातियों को पुनर्जनन करने से कई नैतिक सवाल उठते हैं। क्या हमें प्रकृति के साथ इस तरह का हस्तक्षेप करना चाहिए? क्या ये संकर प्राणी प्राकृतिक पर्यावरण में जीवित रह पाएँगे? ये प्रश्न वैज्ञानिकों एवं नीति निर्माताओं के लिए विचारणीय हैं।
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