(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक मुद्दे) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: स्थानीय स्तर पर शक्तियों एवं वित्त का हस्तांतरण और उसकी चुनौतियाँ) |
संदर्भ
भारत का शहरी क्षेत्र राष्ट्रीय जी.डी.पी. का लगभग दो-तिहाई हिस्सा उत्पन्न करता है, फिर भी नगरपालिकाओं के पास देश के कर राजस्व का केवल एक प्रतिशत से भी कम हिस्सा है। भारतीय शहर राजस्व उत्पन्न करने में असमर्थ नहीं हैं बल्कि उनकी वित्तीय संरचना ने उन्हें विफल कर दिया है।
नगरपालिकाओं की वित्तीय संरचना
- भारत में नगरपालिकाओं को 74वें संवैधानिक संशोधन, 1993 के तहत स्वायत्त शासन की स्थिति दी गई है।
- यह संशोधन शहरों को तीसरे स्तर की सरकार के रूप में मान्यता देता है जिसे कर संग्रहण एवं स्थानीय सेवाओं के प्रावधान की शक्ति दी गई है।
- नगरपालिकाएँ संपत्ति कर, उपयोगकर्ता शुल्क और अन्य शुल्कों के माध्यम से राजस्व उत्पन्न कर सकती हैं।
- इसके अतिरिक्त उन्हें केंद्र एवं राज्य सरकारों से अनुदान व हस्तांतरण प्राप्त होते हैं।
प्रमुख कमियाँ
- कर राजस्व का केंद्रीकरण: वस्तु एवं सेवा कर लागू होने के बाद नगरपालिकाओं के राजस्व स्रोतों का लगभग 19% समाप्त हो गया।
- प्रवेश कर और स्थानीय अधिभार जैसे पारंपरिक राजस्व स्रोत जी.एस.टी. में समाहित हो गए जिससे शहरों की वित्तीय स्वायत्तता कमजोर हुई।
- अनुदान पर निर्भरता: मुआवजा तंत्र ने नगरपालिका स्तर को बड़े पैमाने पर दरकिनार कर दिया, जिससे शहर राज्य व केंद्र के अनुदानों पर निर्भर हो गए।
- अपर्याप्त राजस्व स्रोत: संपत्ति कर और उपयोगकर्ता शुल्क शहर की कुल राजस्व क्षमता का केवल 20-25% हिस्सा हैं।
- इन पर राजनीतिक व प्रशासनिक बाधाएँ हैं जिसके कारण राजस्व संग्रह सीमित रहता है।
- लोकतंत्र का उलटा स्वरूप: शक्तियाँ केंद्रीकृत हैं जबकि जिम्मेदारियाँ विकेंद्रीकृत हैं।
- शहरों से ठोस कचरा प्रबंधन, किफायती आवास, जलवायु लचीलापन एवं डिजिटल बुनियादी ढाँचे जैसी सेवाएँ प्रदान करने की अपेक्षा की जाती है किंतु उनके पास इसके लिए संसाधन नहीं हैं।
नगरपालिका बांड : बेहतर वित्तीय साधन
- नगरपालिका बांड स्थानीय सरकारों द्वारा पूँजी जुटाने के लिए जारी किए जाने वाले ऋण पत्र हैं।
- ये बांड शहरों को बुनियादी ढाँचे के विकास, जैसे- सड़क, जलापूर्ति एवं स्वच्छता सुविधाओं के लिए धन जुटाने में सक्षम बनाते हैं।
- भारत में नीति आयोग और हाल की सुधार-आधारित प्रोत्साहन अनुदान योजनाएँ नगरपालिका बांड को स्थानीय वित्त के नए क्षेत्र के रूप में प्रचारित करती हैं।
लाभ
- वित्तीय स्वायत्तता : बांड शहरों को स्वतंत्र रूप से पूँजी जुटाने की क्षमता प्रदान करते हैं जिससे अनुदान पर निर्भरता कम हो सकती है।
- बुनियादी ढाँचा विकास : बांड से प्राप्त धन का उपयोग दीर्घकालिक परियोजनाओं, जैसे- मेट्रो, स्मार्ट सिटी एवं जल प्रबंधन प्रणालियों के लिए किया जा सकता है।
- निवेशक विश्वास : पारदर्शी एवं जवाबदेह प्रणाली के साथ बांड निवेशकों के बीच विश्वास बढ़ा सकते हैं।
नगरपालिका वित्तीय संरचना के समक्ष चुनौतियाँ
- विश्वसनीयता में कमी : भारतीय नगरपालिका बांड की विश्वसनीयता बहुत कम है। शहरों की साख का आकलन केवल उनके ‘स्वयं के राजस्व’ (जैसे- संपत्ति कर और शुल्क) के आधार पर किया जाता है जबकि अनुदान व हस्तांतरण को ‘गैर-आवर्ती आय’ मानकर छोड़ दिया जाता है।
- रेटिंग प्रणाली का दोष : वर्तमान रेटिंग प्रणाली शहरों की शासन क्षमता, जैसे-पारदर्शिता, लेखा परीक्षा अनुपालन और नागरिक भागीदारी को ध्यान में नहीं रखती है।
- राजनीतिक एवं प्रशासनिक बाधाएँ : संपत्ति कर सुधार और उपयोगकर्ता शुल्क वसूली में राजनीतिक विरोध व प्रशासनिक अक्षमता बाधक है।
- सार्वजनिक वस्तुओं का निजीकरण: ‘उपयोगकर्ता भुगतान’ तर्क सार्वजनिक वस्तुओं, जैसे- स्वच्छ जल, स्वच्छता व सार्वजनिक प्रकाश को निजी वस्तुओं में बदल देता है।
आगे की राह
भारत को वित्तीय अनुबंध को लोकतांत्रिक बनाने की आवश्यकता है। स्कैंडिनेवियाई देशों, जैसे- डेनमार्क, स्वीडन व नॉर्वे में नगरपालिकाओं के पास आयकर संग्रह करने का अधिकार है, जिससे नागरिकों और स्थानीय सरकारों के बीच पारदर्शी व जवाबदेह संबंध बनता है। इसमें सुधार के लिए भारत निम्नलिखित कदम उठा सकता है:
- विकेंद्रीकृत वित्तीय मॉडल: नगरपालिकाओं को अपने स्रोतों व संवैधानिक रूप से अनिवार्य हस्तांतरणों से पर्याप्त और अप्रतिबंधित राजस्व प्रदान किया जाए।
- बांड की विश्वसनीयता बढ़ाना: अनुदान और साझा करों को शहर की आय के वैध घटक के रूप में मान्यता दी जाए। रेटिंग प्रणाली में शासन क्षमता को शामिल किया जाए।
- जी.एस.टी. मुआवजे का उपयोग: शहरों को जी.एस.टी. मुआवजे या राज्य के हिस्से का एक हिस्सा नगरपालिका उधार के लिए जमानत के रूप में उपयोग करने की अनुमति दी जाए।
- सहकारी संघवाद: संविधान द्वारा परिकल्पित सहकारी संघवाद के सिद्धांत को पुनर्जनन किया जाए जिसमें शहरों को कर पूल में हिस्सेदारी का अधिकार हो।
निष्कर्ष
भारत का शहरी भविष्य वित्तीय न्याय पर निर्भर करता है। नगरपालिका वित्त को केवल एक लेखांकन अभ्यास के रूप में नहीं, बल्कि एक नैतिक और राजनीतिक प्रश्न के रूप में देखा जाना चाहिए। शहरों को मिलने वाले अनुदान उपहार नहीं, बल्कि सामाजिक अनुबंध का हिस्सा हैं। शहरों द्वारा उत्पन्न राजस्व दान नहीं, बल्कि उनका अधिकार है। वास्तविक सुधार तभी शुरू होगा जब भारत स्वीकार करेगा कि शहर ‘लागत केंद्र’ नहीं, बल्कि ‘राष्ट्रीय समृद्धि’ का आधार हैं।