(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नप्रत्र- 3: बुनियादी ढाँचाः ऊर्जा, बंदरगाह, सड़क, विमानपत्तन, रेलवे आदि) |
संदर्भ
प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार (PSA) अजय सूद की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञों की एक समिति ने सिफारिश की है कि भारत को कोयला आधारित सभी ताप विद्युत संयंत्रों (TPP) में फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (FDG) इकाइयों को अनिवार्य करने की एक दशक पुरानी नीति को खत्म कर देना चाहिए।
फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (FGD) इकाइयों के बारे में
- क्या है फ्लू गैस : फ्लू गैस जीवाश्म ईंधन के दहन से उत्पन्न होने वाला एक उप-उत्पाद है जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), सल्फर डाइऑक्साइड (SO2), नाइट्रोजन ऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर (PM) जैसे प्रदूषक शामिल होते हैं।
- एफ.जी.डी. इकाइयां : ये इकाइयाँ विशेष रूप से SO2 उत्सर्जन को लक्षित करती हैं जोकि एक अम्लीय गैस है। FGD इकाई में SO2 उत्सर्जन को आमतौर पर क्षारीय यौगिक के साथ उपचारित किया जाता है ताकि प्रदूषक को निष्प्रभावी किया जा सके।
- SO2 उत्सर्जन के प्रभाव : यह एक प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है जो वैश्विक तापमान वृद्धि का कारण बनती है और मानव में श्वसन संबंधी समस्याएँ पैदा कर सकती है। यह वायुमंडल में अन्य सल्फर ऑक्साइड्स का निर्माण कर सकता है जो अन्य यौगिकों के साथ प्रतिक्रिया कर पार्टिकुलेट मैटर (PM2.5) बनाते हैं।
- एफ.जी.डी. प्रणालियों के प्रकार : विश्व स्तर पर एफ.जी.डी. प्रणालियों के तीन सामान्य प्रकार हैं:
- ड्राई सोरबेंट इंजेक्शन : इस विधि में फ्लू गैस में चूना पत्थर (जैसे- पाउडर सोरबेंट) को मिलाया जाता है, जो SO2 के साथ प्रतिक्रिया करता है। परिणामी यौगिक को इलेक्ट्रोस्टैटिक प्रीसिपिटेटर या फैब्रिक फिल्टर द्वारा हटाया जाता है।
- वेट लाइमस्टोन उपचार : इस विधि में भी चूना पत्थर का उपयोग किया जाता है किंतु पाउडर के बजाय चूना पत्थर स्लरी के रूप में। SO2 को इस स्लरी के माध्यम से गुजारा जाता है जिससे जिप्सम बनता है, जोकि एक स्थिर यौगिक है और निर्माण जैसे उद्योगों में इसका व्यापक अनुप्रयोग है। यह सबसे सामान्य एवं उच्च दक्षता वाली तकनीक है।
- समुद्री जल उपचार : यह तटीय क्षेत्रों के पास स्थित संयंत्रों में उपयोग की जाती है जहाँ समुद्री जल SO2 को अवशोषित करता है और फिर पानी को उपचारित कर समुद्र में वापस छोड़ा जाता है।
भारत में एफ.जी.डी. इकाइयों की वर्तमान स्थिति
- वर्ष 2015 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी नीति के अनुसार भारत में सभी 537 कोयला-आधारित ताप विद्युत संयंत्रों को SO2 उत्सर्जन को कम करने के लिए FGD इकाइयां स्थापित करना अनिवार्य बना दिया गया जिसके लिए वर्ष 2018 तक की समय-सीमा निर्धारित की गई थी।
- 1 अगस्त, 2024 की सरकारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, भारत में 537 कोयला आधारित टी.पी.पी. में से केवल 39 में एफ.जी.डी. इकाइयां स्थापित की गई हैं।
- अप्रैल 2025 तक थर्मल पावर प्लांट की श्रेणी के आधार पर अनुपालन को क्रमशः 2027, 2028 एवं 2029 तक बढ़ा दिया गया है।
एफ.जी.डी. इकाइयों के कार्यान्वयन से संबंधित विवाद व चुनौतियाँ
- उच्च आर्थिक लागत : केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार, FGD को स्थापित करने में प्रति मेगावाट लगभग ₹1.2 करोड़ का खर्च आता है जिससे इनकी स्थापना अत्यंत खर्चीली हो जाती है। इससे विद्युत् उत्पादक कंपनियों की पूंजीगत लागत में वृद्धि होती है जिसका प्रभाव बिजली टैरिफ पर पड़ सकता है।
- स्थानीय प्रभाव में असमानता : FGD का वास्तविक प्रभाव उस संयंत्र की नजदीकी जनसंख्या क्षेत्रों से दूरी पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली जैसे शहरों में कोयला संयंत्रों का योगदान सीमित हो सकता है परंतु स्थिर प्रदूषण स्रोतों को नियंत्रित करना अधिक व्यावहारिक एवं प्रभावशाली होता है।
- वैकल्पिक तकनीकों की अनुपस्थिति : विशेषज्ञों के अनुसार, SO2 उत्सर्जन को कम करने के लिए एफ.जी.डी. का कोई विकल्प नहीं है। कोयले में मौजूद सल्फर को कोल वॉश से नहीं हटाया जा सकता है। भारत में कोयले की मांग अगले कुछ दशकों तक बनी रहेगी, विशेषकर पुराने सरकारी संयंत्रों में, जहां FGD का न होना पर्यावरणीय आपदा को जन्म दे सकता है।
नीतिगत निहितार्थ एवं आगे की राह
- एफ.जी.डी. इकाइयों को लागू न करने से न केवल उत्तरी व पूर्वी भारत में SO2 सांद्रता में वृद्धि होगी, बल्कि राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) में 6,000 करोड़ रुपए से अधिक का निवेश भी कमजोर होगा।
- विशेषज्ञों के अनुसार, एफ.जी.डी. स्थापना से बिजली दरों में मामूली वृद्धि होती है किंतु यह प्रदूषण की व्यापक सामाजिक लागत को काफी हद तक कम करता है।
- स्वच्छ वायु स्वास्थ्य देखभाल पर घरेलू व सरकारी व्यय को कम करती है, श्रमिक उत्पादकता में सुधार करती है और प्रदूषण से संबंधित बीमारियों के आर्थिक नुकसान को कम करती है।