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लिंग पहचान मान्यता संबंधी मुद्दे

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: केंद्र व राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान व निकाय)

संदर्भ

मणिपुर उच्च न्यायालय का राज्य को बेयोन्सी लैशराम को नए शैक्षणिक प्रमाण पत्र जारी करने का आदेश व्यक्तिगत न्याय का मामला होने के साथ-साथ ट्रांसजेंडर अधिकारों की स्थिति पर एक बड़ी टिप्पणी है।

हालिया वाद 

  • डॉ. लैशराम के मामले में उनके विश्वविद्यालय ने प्रक्रियागत बाधाओं का हवाला देते हुए उनके शैक्षिक रिकॉर्ड को अपडेट करने से इनकार कर दिया। 
  • वर्तमान मामले में विश्वविद्यालय एवं शिक्षा बोर्ड्स ने अपना मत दिया कि सुधार सबसे पहले प्रमाण पत्र के साथ शुरू होने चाहिए, जो नौकरशाही अनुमोदनों के एक क्रमबद्ध समूह पर आधारित हो।
  • उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि स्व-पहचान के बारे में कानून स्पष्ट होने के बावजूद, नौकरशाही व्यवस्थाएँ प्राय: उच्च अधिकारियों द्वारा बाध्य किए जाने तक कोई कार्रवाई नहीं करती हैं।
  • उच्च न्यायालय का फैसला निस्संदेह सकारात्मक है और यह एक मिसाल भी कायम करता है जो अन्य ट्रांसजेंडर लोगों की मदद कर सकता है। 
  • यह प्रशासकों को संकेत देता है कि प्रक्रियागत कठोरता संवैधानिक एवं वैधानिक गारंटियों को दरकिनार नहीं कर सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय 

  • नालसा बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने लिंग की स्व-पहचान के अधिकार को मान्यता दी और राज्य को आदेश दिया कि वह ट्रांसजेंडर लोगों को सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के रूप में मान्यता प्रदान करे ताकि वे कल्याणकारी उपायों के हकदार हों।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority: NALSA) के वर्ष 2014 के निर्णय और ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 के बावजूद ट्रांसजेंडर एवं नॉन-बाइनरी व्यक्तियों को अपनी लैंगिक पहचान की आधिकारिक मान्यता प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों पर चिंता व्यक्त की है।
    • NALSA ने वर्ष 2014 के अपने एक निर्णय में अनुच्छेद 14, 15, 19 एवं 21 के तहत लिंग (पुरुष, महिला या तृतीय लिंग) की स्व-पहचान का गारंटीकृत अधिकार की पुष्टि की।
  • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार कोई मान्यता एक ‘दंडात्मक प्रक्रिया’ नहीं बन सकती है जो आवेदक को अपमानित करे।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र एवं राज्यों को लिंग पहचान मान्यता प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित, सरल व केंद्रीकृत करने का निर्देश दिया।

सरकार द्वारा उठाये गए कदम 

  • सर्वोच्च न्यायालय के सिद्धांत को ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 में संहिताबद्ध किया गया, जिसने अधिकारियों को किसी व्यक्ति के स्व-पहचान वाले लिंग की पहचान और आधिकारिक दस्तावेज जारी करने के लिए बाध्य किया।
  • संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 के साथ ट्रांसपर्सन सभी संस्थागत अभिलेखों में अपनी पुष्ट पहचान को निर्बाध रूप से मान्यता के हकदार हैं।

संबंधित मुद्दे 

  • नौकरशाही बाधाएँ
  • कई दस्तावेज़ों और चिकित्सा प्रमाणपत्रों की आवश्यकता
  • जटिल राज्य-स्तरीय प्रक्रियाएँ
  • प्राधिकरणों में एकरूपता का अभाव

प्रभाव 

  • अधिकारों का उल्लंघन: सरल एवं सम्मानजनक मान्यता से वंचित करना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है तथा कलंक को बढ़ावा देता है।
  • सामाजिक बहिष्कार: उचित दस्तावेज़ीकरण के बिना स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, नौकरियों एवं कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँच सीमित रहती है।

समाधान 

  • स्व-घोषणा मॉडल : हलफनामे पर आधारित, एकल-खिड़की व्यवस्था को अपनाना
  • एक समान दिशानिर्देश : मनमानी प्रथाओं से बचने के लिए राज्यों में सामंजस्य
  • जागरूकता और प्रशिक्षण : अधिकारियों को आवेदनों को गरिमा के साथ निपटाने के लिए संवेदनशील बनाना
  • डिजिटल एकीकरण : उत्पीड़न को कम करने के लिए आधार, पासपोर्ट एवं शैक्षणिक रिकॉर्ड में ऑनलाइन अपडेट करना 

आगे की राह  

  • लिंग पहचान की कानूनी मान्यता कोई रियायत नहीं है बल्कि एक मौलिक अधिकार है। जब तक इस प्रक्रिया को सुलभ एवं सम्मानजनक नहीं बनाया जाता है तब तक समानता व स्वतंत्रता के संवैधानिक वादे अधूरे रहेंगे।
  • कानूनी अधिकारों और उनके क्रियान्वयन के बीच की खाई को पाटने के लिए नौकरशाही के भीतर संस्थागत सुधार व सांस्कृतिक परिवर्तन दोनों की आवश्यकता होगी जो लिंग को एक जीवंत वास्तविकता के रूप में समझने पर आधारित हों।
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