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हसदेव अरण्य वन क्षेत्र : खनन बनाम वन अधिकारों का मुद्दा

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)

संदर्भ 

छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य क्षेत्र में स्थित ‘पारसा ईस्ट’ एवं ‘केते बेसन’ कोयला खदानें पुन: विवाद के केंद्र में हैं, जिनका संचालन अदाणी समूह की इकाई द्वारा किया जा रहा है। हाल ही में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने गाँव घटबर्रा के निवासियों को दिए गए सामुदायिक वनाधिकार को रद्द करने के आदेश को बरकरार रखा है।

हसदेव अरण्य वन के बारे में (About Hasdeo Arand Forest)

  • हसदेव अरण्य छत्तीसगढ़ के कोरबा एवं सरगुजा जिलों में फैला एक समृद्ध वन क्षेत्र है।
  • यह क्षेत्र हसदेव नदी के जलग्रहण क्षेत्र में आता है और इसे भारत के सबसे जैव-विविध वनों में गिना जाता है।
  • यहाँ के घने जंगलों में हाथी, भालू, तेंदुआ जैसी अनेक वन्य प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
  • यह क्षेत्र कई आदिवासी समुदायों का निवास स्थल है जिनकी आजीविका जंगल, भूमि एवं जल संसाधनों पर निर्भर है।

संबंधित मुद्दा 

  • वर्ष 2013 में घटबर्रा गाँव के निवासियों को सामुदायिक वनाधिकार (CFR Titles) दिए गए थे, जिससे उन्हें वनों के संरक्षण और उपयोग का अधिकार मिला।
  • किंतु वर्ष 2016 में जिला स्तरीय समिति (DLC) ने यह कहते हुए इन अधिकारों को रद्द कर दिया कि यह भूमि पहले ही खनन के लिए वर्ष 2012 में निर्धारित (Diverted) की जा चुकी थी।
  • ग्रामीणों एवं सामाजिक संगठनों ने इस निर्णय को अदालत में चुनौती दी और तर्क दिया की DLC के पास स्वयं अपने पूर्व निर्णय को रद्द करने का अधिकार नहीं है तथा ग्रामवासियों को बिना सुनवाई का अवसर दिए उनके अधिकार समाप्त कर दिए गए।

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का निर्णय

  • 8 अक्तूबर, 2025 को अदालत ने कहा कि वर्ष 2013 में सामुदायिक अधिकारों का दिया जाना स्वयं में एक ‘त्रुटि’ थी, जिसे बाद में रद्द कर ‘सुधारा’ गया।
  • इसलिए अदालत ने कहा कि वह आदेश ‘void ab initio’ यानी ‘प्रारंभ से ही अवैध’ था।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि चूँकि खदान के पहले चरण का खनन पहले ही पूरा हो चुका है और दूसरा चरण भी स्वीकृत है, इसलिए यदि ग्रामवासियों के कोई अधिकार प्रभावित हुए हैं, तो उन्हें मुआवज़े के रूप में धन दिया जा सकता है।

‘Void ab initio’ सिद्धांत

  • Void ab initio एक लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ है- ‘शुरुआत से ही शून्य’ या ‘अवैध’
  • इसका अर्थ यह है कि कोई आदेश, अनुबंध या अधिकार कानूनी रूप से कभी अस्तित्व में ही नहीं था, इसलिए उसका कोई प्रभाव नहीं माना जाएगा।
  • अदालत ने यही तर्क दिया कि चूँकि भूमि पहले से ही खनन के लिए निर्धारित थी, इसलिए उस पर सामुदायिक वनाधिकार देना कानूनी रूप से अमान्य था।

FRA 2006 : ग्रामवासियों के अधिकार

  • वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 आदिवासी और परंपरागत वनवासियों को भूमि एवं वनों पर अधिकार देता है।
  • इसके तहत उन्हें मिलते हैं:
    1. व्यक्तिगत वनाधिकार: व्यक्तिगत खेती या आवास की भूमि पर अधिकार
    2. सामुदायिक वनाधिकार (CFRs): सामूहिक रूप से वनों के संरक्षण, उपयोग और प्रबंधन का अधिकार
    3. वन उत्पादों पर अधिकार: जैसे- लकड़ी, जलावन, फल, औषधीय पौधे आदि का उपयोग
  • अधिनियम में इन अधिकारों को रद्द करने या समाप्त करने का कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। यही कारण है कि इस मामले ने राष्ट्रीय स्तर पर बहस छेड़ दी है।

चिंताएँ

  • अदालत के इस निर्णय से यह आशंका बढ़ी है कि खनन एवं औद्योगिक परियोजनाओं के नाम पर ग्राम सभाओं के अधिकार कमजोर किए जा सकते हैं।
  • यह निर्णय वनाधिकार अधिनियम के वास्तविक मूल्य (Spirit) यानी समुदाय आधारित प्रबंधन और सहमति के सिद्धांत के विपरीत प्रतीत होता है।
  • ‘धन से मुआवज़ा’ का विकल्प समुदायों की संस्कृति, पर्यावरणीय निर्भरता एवं जीवन पद्धति की भरपाई नहीं कर सकता है।
  • भविष्य में यह एक खतरनाक नज़ीर (Precedent) बन सकता है जहाँ किसी भी सामुदायिक अधिकार को ‘प्रशासनिक भूल’ बताकर रद्द किया जा सके।

आगे की राह

  • स्पष्ट कानूनी प्रावधान: FRA में ऐसे मामलों के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश और अपील प्रक्रिया निर्धारित की जानी चाहिए।
  • ग्राम सभा की भूमिका सशक्त हो: किसी भी भूमि विचलन या खनन अनुमति से पहले ग्राम सभा की स्वतंत्र सहमति (Free, Prior, Informed Consent) आवश्यक हो।
  • मुआवज़े से आगे बढ़कर पुनर्वास: केवल आर्थिक मुआवज़े के बजाय सामाजिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक पुनर्वास सुनिश्चित किया जाए।
  • संतुलित विकास दृष्टिकोण: खनन एवं औद्योगिक विकास को पर्यावरणीय न्याय व जन-अधिकारों के साथ संतुलित करना आवश्यक है।

निष्कर्ष

हसदेव अरण्य केवल कोयले का स्रोत नहीं है, बल्कि जीवंत पारिस्थितिकी व आदिवासी जीवन का केंद्र है। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का निर्णय कानूनी दृष्टि से भले तर्कसंगत हो, पर सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से यह गंभीर सवाल खड़ा करता है कि क्या विकास की कीमत पर समुदायों के अधिकार का त्याग किया जा सकता है? भारत को अब ऐसा ढाँचा तैयार करना होगा जिसमें विकास और अधिकारों का संतुलन बना रहे, ताकि जलवायु न्याय एवं सामाजिक न्याय दोनों एक साथ सुनिश्चित हो सकें।

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