(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन) |
संदर्भ
शहरी ध्वनि प्रदूषण वर्तमान में उपेक्षित जन स्वास्थ्य समस्याओं में से एक बनकर उभरा है। भारतीय शहरों में, खासकर स्कूलों, अस्पतालों एवं आवासीय क्षेत्रों के पास, डेसीबल का स्तर नियमित रूप से अनुमेय सीमा से अधिक हो जाता है, जिससे शांति व सम्मान से जीने का संवैधानिक वादा धूमिल होता है।
ध्वनि प्रदूषण के बारे में
- जब किसी स्थान पर ध्वनि का स्तर निर्धारित सीमा से अधिक हो जाए और यह मानव या पर्यावरण के लिए हानिकारक हो, तो उसे ध्वनि प्रदूषण कहा जाता है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ध्वनि के लिए 55 dB (दिन) व 40 dB (रात्रि) की सीमा निर्धारित की है। इसी प्रकार भारत में क्षेत्रवार सीमा तय की गई है-
- औद्योगिक क्षेत्र : 75 dB (दिन), 70 dB (रात्रि)
- वाणिज्यिक क्षेत्र : 65 dB (दिन), 55 dB (रात्रि)
- आवासीय क्षेत्र : 55 dB (दिन), 45 dB (रात्रि)
- साइलेंस ज़ोन : 50 dB (दिन), 40 dB (रात्रि)
ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि के कारण
- वाहनों के घनत्व में निरंतर वृद्धि
- अनियमित निर्माण और शहरी बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ
- त्यौहार, शादियाँ, लाउडस्पीकर्स वाली राजनीतिक रैलियाँ
- आवासीय क्षेत्रों में औद्योगिक समूह
ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव
- स्वास्थ्य पर प्रभाव : लंबे समय तक इसके संपर्क में रहने से सुनने की क्षमता में कमी, नींद में खलल, हृदय रोग, चिंता एवं उत्पादकता में कमी आती है।
- पर्यावरणीय प्रभाव : पशुओं, विशेषकर पक्षियों और समुद्री जीवन के संचार व प्रजनन पैटर्न में बाधा उत्पन्न होती है।
- शहरी चुनौती : प्रमुख भारतीय शहर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित ध्वनि सीमा (दिन में 55 डीबी, रात्रि में 40 डीबी) को पार कर जाते हैं। दिल्ली, मुंबई एवं कोलकाता विश्व स्तर पर सर्वाधिक शोर वाले शहरों में शामिल हैं।
चुनौतियाँ
- कानूनी ढाँचे में कमी : पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियम, 2000 मौजूद हैं किंतु उनका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो रहा है।
- प्रशासनिक बाधाएँ : अधिकारियों (पुलिस, नगर निकाय, सी.पी.सी.बी., एस.पी.सी.बी.) की बहुलता भ्रम उत्पन्न करती है।
- उल्लंघन की स्थिति में न्यूनतम दंड के साथ जागरूकता का भी अभाव है।
सरकार द्वारा प्रयास
संवैधानिक प्रयास
- अनुच्छेद 21 मानसिक एवं पर्यावरणीय कल्याण सहित सम्मानपूर्वक जीवन जीने के अधिकार की गारंटी देता है।
- अनुच्छेद 48A सक्रिय पर्यावरण संरक्षण से संबंधित है। हालाँकि, जब ‘शांत क्षेत्र’ शोर का केंद्र बन जाते हैं तो यह राज्य की क्षमता और नागरिक सम्मान पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है।
विधिक उपबंध
- ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियम, 2000 एक मज़बूत कानूनी ढाँचा प्रदान करते हैं किंतु इनका प्रवर्तन काफ़ी हद तक प्रतीकात्मक ही रहा है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, शांत क्षेत्रों में सुरक्षित सीमा दिन में 50 dB(A) और रात्रि में 40 dB(A) है।
- फिर भी दिल्ली और बेंगलुरु जैसे शहरों में संवेदनशील संस्थानों के पास रीडिंग प्राय: 65 dB(A)-70 dB(A) तक पहुँच जाती है।
अन्य प्रयास
- वर्ष 2011 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने राष्ट्रीय परिवेशीय ध्वनि निगरानी नेटवर्क (NANMN) की शुरुआत की, जिसकी परिकल्पना एक वास्तविक समय डाटा प्लेटफ़ॉर्म के रूप में की गई थी।
- एक दशक बाद यह नेटवर्क सुधार के साधन के बजाय एक निष्क्रिय भंडार के रूप में अधिक कार्य करता है।
न्यायिक दृष्टिकोण
- वर्ष 2024 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से पुष्टि की कि पर्यावरणीय व्यवधान जिसमें अत्यधिक शोर भी शामिल है, अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और सम्मान से जीने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
- न्यायालय ने माना कि अनियंत्रित शहरी शोर मानसिक स्वास्थ्य और नागरिक स्वतंत्रता के लिए एक गंभीर खतरा है।
आगे की राह
- नियमन को मज़बूत करना : डेसीबल सीमा को अद्यतन करने के साथ ही उल्लंघन की स्थिति में ज़्यादा जुर्माना लगाना
- तकनीक का उपयोग : वास्तविक समय में शोर मानचित्रण का विस्तार तथा एआई-आधारित निगरानी का उपयोग करना
- शहरी नियोजन पर बल : शोर-रोधी क्षेत्र बनाने के साथ ही निर्माण गतिविधियों की अवधि को विनियमित करना तथा यातायात प्रबंधन लागू करना
- जन जागरूकता एवं व्यवहार परिवर्तन : नागरिकों को स्वास्थ्य प्रभावों के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए जागरूकता अभियान
- जन अभियानों को नारों से आगे बढ़कर स्कूलों, चालक प्रशिक्षण कार्यक्रमों एवं सामुदायिक स्थानों में गहन शिक्षा तक ले जाना चाहिए।
- NANMN का विकेंद्रीकरण : स्थानीय निकायों को वास्तविक समय के शोर डाटा तक पहुँच प्रदान करना और कार्रवाई करने की ज़िम्मेदारी देना
- निगरानी को प्रवर्तन से जोड़ना : दंड, ज़ोनिंग अनुपालन या निर्माण प्रतिबंधों के बिना डेटा का प्रदर्शन अप्रभावी बना रहना
- जागरूकता को संस्थागत बनाना : ‘नो हॉर्निंग डे’ जैसी पहलों को निरंतर व्यवहारिक अभियानों में विकसित किया जाना चाहिए।
- शहरी नियोजन में ध्वनिक लचीलापन शामिल करना : शहरों को केवल गति और विस्तार के लिए नहीं, बल्कि ध्वनिक सभ्यता के लिए डिज़ाइन किया जाना चाहिए।
- न्यायिक प्रयास : यद्यपि अदालतों ने समय-समय पर हस्तक्षेप किया है (जैसे-लाउडस्पीकरों पर प्रतिबंध) किंतु प्रवर्तन को संस्थागत रूप दिया जाना चाहिए।
- राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों के अनुरूप एक राष्ट्रीय ध्वनिक नीति की तत्काल आवश्यकता है। ऐसे ढाँचे में सभी क्षेत्रों में अनुमेय डेसीबल स्तर को परिभाषित किए जाने के साथ ही नियमित ऑडिट अनिवार्य किए जाने चाहिए और स्थानीय शिकायत निवारण तंत्रों को सशक्त बनाया जाना चाहिए।