(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक मुद्दे) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र-2: न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य; भारतीय संविधान- महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना।) |
संदर्भ
हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के खिलाफ एक कठोर आदेश जारी किया, जिससे उच्च न्यायालय की न्यायिक स्वायत्तता और प्रशासनिक अधीक्षण पर सवाल उठे। हालांकि, भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश के हस्तक्षेप के बाद यह आदेश वापस ले लिया गया है।
मुद्दा क्या है
- 4 अगस्त, 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश प्रशांत कुमार के खिलाफ कठोर टिप्पणी करते हुए एक आदेश जारी किया।
- यह आदेश एक ऐसे मामले से संबंधित था, जिसमें न्यायमूर्ति कुमार ने एक सिविल विवाद (बिक्री लेनदेन में अवैतनिक राशि) को आपराधिक मामला (विश्वास का आपराधिक हनन) मानने की अनुमति दी थी।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इसे "न्याय का मजाक" करार देते हुए कहा कि यह आदेश "हास्यास्पद और त्रुटिपूर्ण" है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि यह पहली बार नहीं है जब न्यायमूर्ति कुमार ने इस तरह के त्रुटिपूर्ण आदेश पारित किए हैं।
- भारतीय न्यायिक व्यवस्था में हाल के वर्षों में एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति देखी गई है, जहां सिविल विवादों, जैसे धन वसूली, चेक बाउंस, अनुबंध असहमति, विरासत और वाणिज्यिक लेनदेन, को आपराधिक मामलों में परिवर्तित किया जा रहा है।
- अप्रैल 2025 में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने उत्तर प्रदेश सरकार की इस प्रवृत्ति के लिए आलोचना की थी।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 4 अगस्त, 2025 के आदेश में निम्नलिखित निर्देश जारी किए:
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया कि न्यायमूर्ति कुमार को उनके सेवानिवृत्ति तक कोई भी आपराधिक मामले न सौंपे जाएं।
- न्यायमूर्ति कुमार को एक अनुभवी वरिष्ठ न्यायाधीश के साथ डिवीजन बेंच में बैठने का निर्देश दिया गया ताकि वे कानून की बारीकियों को सीख सकें।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को नए सिरे से विचार के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय को वापस भेज दिया और मुख्य न्यायाधीश को इसे किसी अन्य न्यायाधीश को सौंपने का निर्देश दिया।
विशेष टिप्पणी: सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि इस तरह के त्रुटिपूर्ण आदेश या तो "कानून की अज्ञानता" या "बाहरी विचारों" के कारण हो सकते हैं, जो "अक्षम्य" हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की मांग
- 7 अगस्त, 2025 को, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 13 न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश अरुण भंसाली को एक पत्र लिखकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को लागू न करने का आग्रह किया। पत्र में निम्नलिखित मांगें की गईं:
- एक पूर्ण न्यायालय (फुल कोर्ट) की बैठक बुलाई जाए ताकि इस मुद्दे पर चर्चा हो सके।
- सर्वोच्च न्यायालय के आदेश (पैराग्राफ 24 से 26) को लागू न करने का प्रस्ताव, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय का उच्च न्यायालयों पर प्रशासनिक अधीक्षण नहीं है।
- न्यायाधीशों ने आदेश के "स्वर और लहजे" पर अपनी "पीड़ा" व्यक्त की।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अरिंदम सिन्हा ने व्यक्तिगत रूप से इस पत्र को शुरू किया और इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय नियम, 1952 के तहत प्रसारित किया, जिसे कम से कम 12 अन्य न्यायाधीशों का समर्थन प्राप्त हुआ।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय वापस
- सर्वोच्च न्यायालय ने 8 अगस्त, 2025 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश प्रशांत कुमार को आपराधिक मामलों की सुनवाई से रोकने के अपने फैसले को वापस ले लिया।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश ने आदेश की समीक्षा के लिए एक पत्र के माध्यम से हस्तक्षेप किया था।
- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ, जिन्होंने 4 अगस्त को आदेश पारित किया था, ने 8 अगस्त को स्पष्ट किया कि, "हमारा इरादा उक्त न्यायाधीश को शर्मिंदा करने या उन पर आक्षेप लगाने का नहीं था।"
- मामले को पुनर्विचार के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पास वापस भेजते हुए, पीठ ने कहा, "हमें उम्मीद है कि भविष्य में हमें किसी भी उच्च न्यायालय से ऐसे विकृत और अन्यायपूर्ण आदेश देखने को नहीं मिलेंगे।"
- पीठ ने आगे कहा, "हम पूरी तरह से स्वीकार करते हैं कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही रोस्टर के स्वामी हैं, हमारे निर्देश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की प्रशासनिक शक्ति में बिल्कुल भी हस्तक्षेप नहीं करते हैं।"
कानूनी और संवैधानिक आयाम
- सर्वोच्च न्यायालय का प्रशासनिक अधीक्षण: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 141 स्पष्ट करता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून देश के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी है।
- अनुच्छेद 144 यह भी कहता है कि सभी सिविल और न्यायिक प्राधिकरण सर्वोच्च न्यायालय की सहायता में कार्य करेंगे।
- हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय का उच्च न्यायालयों पर प्रशासनिक अधीक्षण (जैसे रोस्टर प्रबंधन या बेंच संरचना) सीमित है।
- उच्च न्यायालय संवैधानिक संस्थाएं हैं, और उनकी प्रशासनिक स्वायत्तता को संरक्षित करने की आवश्यकता है।
- सिविल और आपराधिक मामलों का दुरुपयोग: सर्वोच्च न्यायालय ने सिविल विवादों को आपराधिक मामलों में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की है।
- उदाहरण के लिए, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 420 (ठगी) और धारा 406 (विश्वास का आपराधिक हनन) के तहत मामले दर्ज किए जा रहे हैं, जो मूल रूप से सिविल प्रकृति के हैं।
- यह प्रवृत्ति न केवल न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करती है, बल्कि यह पक्षकारों के लिए अनुचित दबाव भी बनाती है।
- न्यायिक आलोचना की भाषा: सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में न्यायमूर्ति कुमार के खिलाफ "हास्यास्पद और त्रुटिपूर्ण" और "न्याय का मजाक" जैसे शब्दों का उपयोग किया गया।
- यह भाषा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बीच असंतोष का कारण बनी, क्योंकि इसे अपमानजनक माना गया। यह सवाल उठता है कि क्या ऐसी भाषा न्यायिक गरिमा और सहकर्मिता को प्रभावित करती है।
इस निर्णय के निहितार्थ
- न्यायिक स्वायत्तता: यह मामला सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के बीच शक्ति संतुलन को रेखांकित करता है। उच्च न्यायालयों की प्रशासनिक स्वायत्तता को बनाए रखना संवैधानिक ढांचे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, और इस तरह के निर्देश इसे कमजोर कर सकते हैं।
- न्यायिक अनुशासन: सर्वोच्च न्यायालय का यह कदम न्यायिक जवाबदेही को बढ़ावा देने का प्रयास हो सकता है, लेकिन यह सवाल उठाता है कि क्या इस तरह की कार्रवाई को प्रशासनिक निर्देशों के बजाय अपीलीय या समीक्षा प्रक्रियाओं के माध्यम से संबोधित किया जाना चाहिए।
- सिविल और आपराधिक कानून का दुरुपयोग: यह मामला सिविल विवादों को आपराधिक मामलों में परिवर्तित करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर प्रकाश डालता है, जो न केवल पक्षकारों के लिए, बल्कि न्यायिक संसाधनों के लिए भी हानिकारक है।
- न्यायिक एकजुटता: इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 13 न्यायाधीशों का अपने सहयोगी के समर्थन में एकजुट होना एक दुर्लभ घटना है। यह उच्च न्यायालयों के भीतर सामूहिक भावना और उनकी स्वायत्तता की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- सार्वजनिक विश्वास: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के बीच इस तरह का सार्वजनिक विवाद न्यायिक प्रणाली में जनता के विश्वास को प्रभावित कर सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि ऐसी स्थिति को संवेदनशीलता और संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर हल किया जाए।
निष्कर्ष
यह विवाद भारत की न्यायिक व्यवस्था में स्वायत्तता, जवाबदेही और कानूनी प्रक्रियाओं के दुरुपयोग के बीच एक जटिल संतुलन को दर्शाता है। भविष्य में, इस तरह के मामलों को समीक्षा या अपीलीय प्रक्रियाओं के माध्यम से हल करने और सिविल-अपराधी दुरुपयोग को रोकने के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश स्थापित करने की आवश्यकता है ताकि न्यायिक प्रणाली की अखंडता और जनता का विश्वास बना रहे।
यह भी जानिए!
उच्च न्यायालयों की प्रशासनिक स्वायत्तता
- संवैधानिक स्थिति:
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 229 के तहत उच्च न्यायालयों को प्रशासनिक स्वायत्तता प्राप्त है, जिसमें कर्मचारी नियुक्ति, रोस्टर प्रबंधन और आंतरिक कार्यवाही शामिल हैं।
- उच्च न्यायालय स्वतंत्र संवैधानिक संस्थाएं हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासनिक अधीक्षण से मुक्त हैं।
- मुख्य न्यायाधीश की भूमिका:
- उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश प्रशासनिक प्रमुख होता है, जो रोस्टर आवंटन और बेंच गठन का निर्णय लेता है।
- अनुच्छेद 229 के तहत मुख्य न्यायाधीश को कर्मचारियों की नियुक्ति और सेवा शर्तों पर नियंत्रण।
- सर्वोच्च न्यायालय का सीमित अधीक्षण:
- अनुच्छेद 141 के तहत सर्वोच्च न्यायालय का कानूनी निर्णय बाध्यकारी है, लेकिन प्रशासनिक मामलों में हस्तक्षेप सीमित है।
- सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालयों के रोस्टर या बेंच संरचना को प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित नहीं कर सकता।
- न्यायिक स्वतंत्रता:
- प्रशासनिक स्वायत्तता न्यायिक स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है, जो बाहरी हस्तक्षेप से उच्च न्यायालयों की रक्षा करती है।
- उच्च न्यायालयों को स्वतंत्र रूप से अपने क्षेत्रीय और प्रशासनिक कार्यों का संचालन करने का अधिकार।
- यह संवैधानिक ढांचे में शक्ति संतुलन को बनाए रखने में मदद करती है।
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