(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय) |
संदर्भ
सर्वोच्च न्यायालय ने शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल वाद में भारतीय दंड संहिता की धारा 498 A (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85) के दुरुपयोग को रोकने के लिए मुकेश बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए दिशानिर्देशों का समर्थन किया है।
क्या है भारतीय दंड संहिता की धारा 498 A
- भारतीय दंड संहिता की धारा 498A पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा विवाहित महिला के साथ क्रूरता को अपराध मानती है।
- वर्ष 1983 में लागू की गई यह धारा महिलाओं को घरेलू हिंसा, मानसिक एवं शारीरिक यातना और उत्पीड़न, विशेषकर दहेज की मांग से बचाने के लिए बनाई गई थी।
- इस अपराध के लिए तीन वर्ष तक की कैद और जुर्माने का प्रावधान है। यह एक संज्ञेय एवं गैर-जमानती अपराध है।
धारा 498A पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दिशानिर्देश
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुकेश बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद में मजिस्ट्रेट को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) या शिकायत दर्ज करने के बाद किसी भी कठोर कार्रवाई के लिए दो महीने की ‘शांति अवधि’ (Cooling Period) शुरू की थी।
- ‘शांति अवधि’ के दौरान मामला एक परिवार कल्याण समिति (FWC) को भेजा जाएगा।
- हालांकि, ‘शांति अवधि’ की शुरुआत एवं एफ.डब्ल्यू.सी. को मामले का संदर्भ न्याय तक त्वरित पहुंच के पीड़ित के अधिकार को कमजोर करते हैं।
- हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक प्रयोगवाद (Judicial Experimentalism) को तेज़ी से अपनाया है। हालाँकि, चिंताएँ तब उत्पन्न होती हैं जब ऐसे प्रयोग नागरिकों के न्याय के मौलिक अधिकार में देरी या उसे कमज़ोर करते हैं।
क्या है न्यायिक प्रयोगवाद
- जटिल संवैधानिक एवं सामाजिक प्रश्नों से निपटने के लिए नवीन व लचीले तरीके अपनाना
- इसके तहत न्यायालय कठोर मिसाल से विचलन दिखाते हुए परीक्षण-और-त्रुटि (Trial and Error) पद्धति अपनाता है।
- इसे प्राय: संवैधानिक पीठों, जनहित याचिकाओं (PIL) और सामाजिक न्याय के मामलों में देखा जाता है।
- उदाहरण: सीलबंद न्यायशास्त्र, पर्यावरणीय मामलों में निरंतर आदेश, यौन उत्पीड़न में प्रयोगात्मक दिशानिर्देश (विशाखा मामला) आदि
न्यायालय के न्यायिक प्रयोगवाद से संबंधित प्रावधान
जाँच का आधार
- धारा 498A का अधिनियमन वैवाहिक जीवन में महिलाओं के विरुद्ध विभिन्न प्रकार की क्रूरताओं को दंडित करने के उद्देश्य से किया गया था।
- हालाँकि, न्यायालयों ने कई मामलों में एफ.आई.आर. दर्ज कराने और उसके बाद होने वाली गिरफ़्तारियों के संबंध में महिलाओं द्वारा कानून का दुरुपयोग करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की है।
- तदनुसार, न्यायालयों ने ‘निर्दोष’ पति और उसके परिवार की सुरक्षा के लिए प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय स्थापित किए हैं।
प्रारंभिक जाँच की प्रक्रिया
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ललिता कुमारी मामले में वैवाहिक विवादों से उत्पन्न मामलों को एफ.आई.आर. दर्ज करने से पहले ‘प्रारंभिक जाँच’ की श्रेणी में रखा है।
- हाल के आपराधिक कानून सुधारों ने भी पति द्वारा क्रूरता के मामलों को एफ.आई.आर. दर्ज करने से पहले ‘प्रारंभिक जाँच’ के दायरे में रखा है।
गिरफ़्तारी के संबंध में प्रावधान
- झूठी या तुच्छ शिकायतों में एफ.आई.आर. दर्ज होने से रोकने के लिए इन जाँचों के अलावा न्यायालयों ने धारा 498A के मामले में संभावित दुरुपयोग के एक अन्य क्षेत्र पतियों तथा उनके परिवार के सदस्यों की अनियंत्रित गिरफ़्तारियों पर भी ध्यान दिया है।
- गिरफ़्तारी की शक्ति को दो स्तरों पर युक्तिसंगत बनाया गया है।
- पहला, वर्ष 2008 में दंड प्रक्रिया संहिता में एक वैधानिक परिवर्तन लाकर।
- वर्ष 2008 के संशोधन ने गिरफ्तारी के मामले में ‘आवश्यकता के सिद्धांत’ को लागू किया।
- दूसरा, अर्नेश कुमार (2014) मामले में न्यायिक आदेश द्वारा।
- अर्नेश कुमार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक चेकलिस्ट और ‘उपस्थिति के लिए नोटिस’ लागू करके धारा 498A के तहत आने वाले मामलों में पुलिस द्वारा गिरफ्तारी की शक्तियों के बेलगाम प्रयोग पर प्रभावी रूप से रोक लगाई।
- सतेंद्र कुमार अंतिल (2022) वाद में न्यायालय ने अर्नेश कुमार के निर्देशों का पालन न करने पर गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को जमानत पर रिहा करने का निर्देश देकर इन संस्थागत जांचों को अधिक मजबूत किया।
न्यायिक प्रयोगवाद के प्रभाव
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2016 तक धारा 498A शीर्ष पाँच ‘सर्वाधिक गिरफ्तारी’ वाले अपराधों में से एक रही है।
- वर्ष 2016 के बाद यह शीर्ष 10 में शामिल हो गई, जिससे पता चलता है कि वैधानिक एवं संस्थागत स्तर पर उठाए गए कदमों का प्रभाव पड़ा है।
- हालाँकि, इस प्रावधान के तहत पंजीकृत अपराध वर्ष 2015 में 1,13,403 से बढ़कर वर्ष 2022 में 1,40,019 हो गए किंतु इसी अवधि के दौरान गिरफ्तारियाँ 1,87,067 से घटकर 1,45,095 रह गईं।
- यह पीड़ित के न्याय तक पहुँच के अधिकार से समझौता किए बिना अभियुक्त की स्वतंत्रता की रक्षा करने का संकेत था।
संबंधित मुद्दे
- कानून में अनिश्चितता : बार-बार होने वाले विचलन न्यायिक परिणामों की पूर्वानुमेयता को कमज़ोर करते हैं।
- प्रक्रियात्मक अतिक्रमण : स्थापित प्रक्रियाओं की अनदेखी करने से प्राकृतिक न्याय से समझौता हो सकता है।
- न्याय में देरी : लंबे समय तक चलने वाले ‘प्रयोग’ अंतिम राहत को स्थगित कर सकते हैं।
- एफ.आई.आर./शिकायत दर्ज करने के बावजूद ‘शांति अवधि’ समाप्त होने तक कोई कार्रवाई न करने से से शिकायत दर्ज कराने के बाद भी पीड़िता की दुर्दशा और भी बदतर हो जाती है।
- जवाबदेही की कमी : न्यायिक नवाचारों में संसदीय या सार्वजनिक निगरानी का अभाव होता है।
- ‘शांति अवधि’ शुरू करने एवं शिकायत को महिला कल्याण समिति को भेजने का विचार वैधानिक व संस्थागत ढाँचे के दायरे से बाहर है।
न्याय का अधिकार दृष्टिकोण
- अनुच्छेद 21 शीघ्र व निष्पक्ष न्याय की गारंटी देता है।
- न्यायिक प्रयोगों से न्याय में बाधा के बजाय उस तक पहुँच बढ़नी चाहिए।
- जब नवाचार निष्पक्षता से समझौता करता है तो इससे संवैधानिक नैतिकता को नुकसान पहुँचने का खतरा होता है।
न्यायिक प्रयोगवाद की समीक्षा
पक्ष में तर्क
- विधायी कमियों को पूरा कर सकते हैं।
- सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देता है।
- नई चुनौतियों के अनुकूल ढलने में सक्षम होता है।
विपक्ष में तर्क
- न्यायिक अतिक्रमण
- मनमानी और शक्तियों के पृथक्करण के क्षरण का जोखिम
आगे की राह
- न्यायिक नवाचार संवैधानिक सिद्धांतों और उचित प्रक्रिया द्वारा निर्देशित होना चाहिए।
- स्पष्ट सूर्यास्त खंड (Clear Sunset Clauses) या प्रयोगात्मक उपायों की आवधिक समीक्षा करना बेहतर कदम है।
- विधायिका और कार्यपालिका के साथ संस्थागत संवाद को मजबूत करना आवश्यक है।
निष्कर्ष
- सर्वोच्च न्यायालय के लिए अपने फैसले पर पुनर्विचार करना आवश्यक है क्योंकि पीड़ित द्वारा कानून के दुरुपयोग और पुलिस द्वारा सत्ता के दुरुपयोग की आशंकाओं को विधायी व न्यायिक उपायों के माध्यम से दूर किया जा चुका है।
- महिला एवं बाल विकास समितियों को शिकायतें अग्रेषित करने का कार्य विधायी मंशा से परे और आपराधिक न्याय एजेंसियों की कार्यात्मक स्वायत्तता के विरुद्ध है। साथ ही, यह पीड़ित के न्याय पाने के प्रयास को भी बाधित करता है।