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सलवा जुडूम और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2:
कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन व कार्य; सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप तथा उनके अभिकल्पन एवं कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)

संदर्भ

  • ‘सलवा जुडूम’ वर्ष 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार के समर्थन से राज्य में नक्सलवाद के खिलाफ शुरू किया गया एक सशस्त्र नागरिक अभियान था। वर्ष 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ सरकार’ मामले में इसे असंवैधानिक घोषित किया।
  • हाल ही में, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने विपक्ष के उप-राष्ट्रपति उम्मीदवार और सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी पर इसे असंवैधानिक घोषित करने के फैसले के आधार पर नक्सलवाद को समर्थन देने का आरोप लगाया, जिससे यह मुद्दा फिर चर्चा में आया।

हालिया विवाद

  • गृह मंत्री का बयान: गृह मंत्री के अनुसार यदि न्यायमूर्ति रेड्डी का सलवा जुडूम के संबंध में उक्त फैसला नहीं आता, तो वर्ष 2020 तक नक्सलवाद समाप्त हो गया होता।
  • कानूनी समुदाय की प्रतिक्रिया: कुछ पूर्व न्यायाधीशों और कानूनी विशेषज्ञों ने इस बयान की आलोचना करते हुए इसे न्यायिक स्वतंत्रता पर हमला बताया। किसी फैसले को न्यायाधीश के निजी विचारों से जोड़ना अनुचित एवं निंदनीय है।
  • राजनीतिक संदर्भ: यह विवाद 9 सितंबर, 2025 को होने वाले उप-राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उभरा, जिसमें न्यायमूर्ति रेड्डी विपक्ष के उम्मीदवार हैं।

सलवा जुडूम : एक अवलोकन

  • उद्भव: वर्ष 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार ने नक्सलवाद के खिलाफ ‘शांति मार्च’ (गोंडी भाषा में सलवा जुडूम) शुरू किया। इसका उद्देश्य स्थानीय आदिवासी युवाओं को विशेष पुलिस अधिकारी (SPOs) के रूप में भर्ती कर नक्सलियों से मुकाबला करना था।
  • संरचना: इसमें ज्यादातर 18 वर्ष या उससे अधिक उम्र के आदिवासी युवा शामिल थे, जिनमें से कई की शिक्षा पांचवीं कक्षा तक थी। इन्हें ‘कोया कमांडो’ भी कहा जाता था।
  • भूमिका: SPOs को गाइड, अनुवादक, खुफिया जानकारी देने और नक्सलियों की पहचान करने के लिए तैनात किया गया। उन्हें आत्मरक्षा के लिए हथियार दिए गए।
  • वित्तीय समर्थन: प्रत्येक SPO को 3,000 रुपए मासिक मानदेय दिया जाता था, जिसमें 80% केंद्र सरकार द्वारा वहन किया जाता था।
  • प्रभाव: वर्ष 2005-2011 के बीच बस्तर में 1,019 ग्रामीण, 726 सुरक्षाकर्मी और 422 नक्सली मारे गए। सलवा जुडूम के कारण लगभग 55,000 आदिवासी विस्थापित हुए।
  • आलोचना: मानवाधिकार संगठनों ने इसे असंवैधानिक एवं हिंसक बताया, जिसमें जबरन विस्थापन, हत्या, बलात्कार व आगजनी जैसे आरोप शामिल थे।

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मामला

  • याचिका: वर्ष 2007 में समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर, इतिहासकार रामचंद्र गुहा और पूर्व IAS अधिकारी ई.ए.एस. सरमा ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
  • आरोप: याचिकाकर्ताओं ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक एवं मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाला बताया। उन्होंने तर्क दिया कि यह नागरिकों एवं लड़ाकों के बीच की रेखा को धुंधला करता है, अप्रशिक्षित युवाओं को हिंसक प्रतिशोध के लिए उजागर करता है और समुदायों को विस्थापित करता है।
  • मुख्य मुद्दे:
    • SPOs की नियुक्ति और हथियारबंदी की वैधता
    • आदिवासी युवाओं के जीवन को खतरे में डालना
    • सलवा जुडूम द्वारा कथित हिंसा, जैसे मार्च 2011 में मोरपल्ली, ताडमेटला और तिम्मापुरम गाँवों में आगजनी, बलात्कार व हत्या
    • स्वामी अग्निवेश पर हमले का मामला
  • याचिका की माँग: सलवा जुडूम को भंग करना, मानवाधिकार उल्लंघन की स्वतंत्र जाँच, पीड़ितों को मुआवजा और SPOs की नियुक्ति पर रोक।

राज्य का तर्क

  • स्वैच्छिक भर्ती: छत्तीसगढ़ सरकार ने कहा कि SPOs की भर्ती स्वैच्छिक थी, जिसमें न्यूनतम 18 वर्ष की आयु और चरित्र सत्यापन अनिवार्य था। प्राथमिकता उन लोगों को दी गई जो नक्सल हिंसा से पीड़ित थे।
  • प्रशिक्षण और हथियार: SPOs को हथियारों का उपयोग, कानून और मानवाधिकारों का प्रशिक्षण दिया गया। हथियार केवल आत्मरक्षा के लिए थे।
  • प्रभावशीलता: SPOs ने राहत शिविरों की रक्षा की और नक्सली हमलों को विफल किया। वे स्थानीय भाषा, भूभाग एवं नक्सलियों की जानकारी के कारण प्रभावी थे।
  • रोजगार: सरकार ने तर्क दिया कि SPOs की नियुक्ति से रोजगार के अवसर बढ़े, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ नौकरियाँ सीमित थीं।
  • केंद्र की भूमिका: केंद्र सरकार ने कहा कि उसकी भूमिका केवल SPOs की संख्या की मंजूरी और मानदेय के लिए धन प्रदान करने तक सीमित थी। नियुक्ति, प्रशिक्षण एवं तैनाती राज्य का दायित्व था।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

  • न्यायाधीश: न्यायमूर्ति बी. सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस एस.एस. निज्जर की खंडपीठ ने 5 जुलाई, 2011 को फैसला सुनाया।
  • मुख्य बिंदु:
    • असंवैधानिकता: छत्तीसगढ़ पुलिस अधिनियम, 2007 के तहत SPOs की नियुक्ति असंवैधानिक थी, क्योंकि इसमें स्पष्ट दिशानिर्देशों और सुरक्षा उपायों की कमी थी।
    • समानता का उल्लंघन (अनुच्छेद 14): कम प्रशिक्षित एवं कम वेतन वाले SPOs को नियमित पुलिस की जिम्मेदारियाँ देना भेदभावपूर्ण था।
    • जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 21): अप्रशिक्षित आदिवासी युवाओं को खतरनाक परिस्थितियों में तैनात करना उनके जीवन और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन था।
    • आत्मरक्षा का प्रशिक्षण: न्यायालय ने कहा कि कम पढ़े-लिखे युवा आत्मरक्षा की जटिल सामाजिक-कानूनी अवधारणाओं को समझने में असमर्थ थे।
    • रोजगार का तर्क अस्वीकार: खतरनाक परिस्थितियों में युवाओं को तैनात करना रोजगार नहीं माना जा सकता है।
  • आदेश:
    • सलवा जुडूम को भंग करना और SPOs की नक्सल-विरोधी गतिविधियों में तैनाती पर तत्काल रोक
    • सभी SPOs से हथियार और गोला-बारूद वापस लेना
    • केंद्र सरकार को SPOs की भर्ती के लिए धन देना बंद करने का निर्देश
    • सलवा जुडूम और कोया कमांडो द्वारा कथित आपराधिक गतिविधियों की जाँच के लिए FIR दर्ज करना तथा अभियोजन शुरू करना
    • वर्ष 2011 में मोरपल्ली, ताडमेटला और तिम्मापुरम गाँवों में हिंसा तथा स्वामी अग्निवेश पर हमले की CBI जाँच का आदेश
    • स्कूलों और शैक्षिक संस्थानों से सुरक्षा बलों को हटाने के लिए दो महीने का समय

वर्तमान में प्रासंगिकता

  • न्यायिक स्वतंत्रता: गृह मंत्री के बयान ने न्यायिक स्वतंत्रता पर सवाल उठाए। 18 पूर्व न्यायाधीशों ने इसे न्यायपालिका की विश्वसनीयता के लिए खतरा बताया।
  • मानवाधिकार: फैसला मानवाधिकारों और संवैधानिक शासन के महत्व को रेखांकित करता है, विशेष रूप से यह कि राज्य निजी सशस्त्र समूहों को प्रायोजित नहीं कर सकता।
  • नक्सलवाद पर प्रभाव: सलवा जुडूम के कारण नक्सलियों को समर्थन बढ़ा, क्योंकि यह आदिवासियों को उनके खिलाफ धकेलने वाला साबित हुआ।
  • राज्य की रणनीति: वर्ष 2011 के बाद छत्तीसगढ़ सरकार ने SPOs को ‘सहायक सशस्त्र बल’ के रूप में फिर से नियुक्त किया, जिसे याचिकाकर्ताओं ने फैसले की अवहेलना बताया। वर्ष 2025 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कानून बनाना अवमानना नहीं है, जब तक कि यह असंवैधानिक न हो।
  • जारी चुनौतियाँ: सलवा जुडूम शिविर खाली हो चुके हैं किंतु हिंसा के पीड़ितों को मुआवजा और पुनर्वास अभी भी अधूरा है। बस्तर में CRPF शिविरों की संख्या बढ़ रही है, जो स्थानीय लोगों के लिए नई चुनौतियाँ पैदा कर रही है।
  • अंतरराष्ट्रीय महत्व: यह मामला वैश्विक मानवाधिकार कानूनों (जैसे- जेनेवा अभिसमयों और मानवाधिकार घोषणा पत्र) के तहत राज्य की जिम्मेदारी को रेखांकित करता है।

निष्कर्ष

  • सलवा जुडूम पर सर्वोच्च न्यायालय का 2011 का फैसला भारत में संवैधानिक शासन और मानवाधिकारों की रक्षा का एक ऐतिहासिक उदाहरण है।
  • यह राज्य-प्रायोजित सतर्कता और असंवैधानिक उपायों के खिलाफ एक मिसाल है, जो नक्सलवाद जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए कानून के शासन की आवश्यकता को दर्शाता है।
  • हाल के विवादों ने इस फैसले की प्रासंगिकता को फिर से उजागर किया है जो न्यायिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को मजबूत करता है।
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