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सिकल सेल विकार और दिव्यांगता न्याय संबंधी मुद्दे

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय।)

संदर्भ

भारत सरकार ने मार्च 2024 में RPWD अधिनियम, 2016 (Rights of Persons with Disabilities Act) के अंतर्गत नई दिशानिर्देश जारी किए। इन दिशानिर्देशों का उद्देश्य सिकल सेल विकार (SCD) से पीड़ित लोगों की दिव्यांगता का आकलन करना था। किंतु हाल ही में यह मुद्दा सामने आया है कि SCD को रोजगार व शिक्षा में आरक्षण की श्रेणी में शामिल नहीं किया गया। इससे दिव्यांगता न्याय की अवधारणा पर गहरी बहस छिड़ गई है।

सिकल सेल विकार (Sickle Cell Disorder)

  • यह एक आनुवंशिक रक्त विकार है, जिसमें रक्त के लाल कोशिकाएँ (RBCs) सामान्य गोल आकार की जगह हंसिये (Sickle) के आकार की हो जाती हैं।
  • इससे रक्त प्रवाह में रुकावट होती है और शरीर के विभिन्न हिस्सों तक ऑक्सीजन पहुँचने में दिक़्क़त आती है। यह बीमारी कुछ विशिष्ट आदिवासी एवं दलित समुदायों में अधिक पाई जाती है।

लक्षण

  • बार-बार तेज दर्द (Pain crisis)
  • खून की कमी (Anaemia)
  • थकान और कमजोरी
  • अंगों को नुकसान (Kidney, Liver, Spleen)

दिव्यांगता से तात्पर्य

  • दिव्यांगता का अर्थ किसी शारीरिक, मानसिक या संवेदनात्मक कमी से है, जो किसी व्यक्ति की दैनिक गतिविधियों या समाज में भागीदारी को प्रभावित करती है।
  • प्रकार:
    • दृष्टि संबंधी (Visual disability)
    • श्रवण संबंधी (Hearing disability)
    • चाल-ढाल/शारीरिक (Locomotor disability)
    • बौद्धिक/मानसिक (Intellectual disability)
    • रक्त संबंधी विकार (जैसे- थैलेसीमिया, हीमोफीलिया आदि)

दिव्यांगता के रूप में SCD

  • SCD शारीरिक रूप से अदृश्य किंतु गंभीर दिव्यांगता है। यह लगातार दर्द, थकान एवं सामाजिक-आर्थिक बाधाओं को जन्म देती है।
  • परंतु चिकित्सा आधारित 40% दिव्यांगता सीमा को पार करना कठिन होने से यह अक्सर दिव्यांगता मानक (Benchmark Disability) की श्रेणी से बाहर रह जाती है।

RPWD अधिनियम, 2016 के बारे में

  • यह कानून ‘UN Convention on Rights of Persons with Disabilities’ के अनुरूप है।
  • इस अधिनियम का उद्देश्य है –
    • गरिमा, समानता और भेदभाव-रहित व्यवहार सुनिश्चित करना
    • दिव्यांग व्यक्तियों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा में अधिकार देना
  • इसमें 21 प्रकार की दिव्यांगताओं को मान्यता दी गई।
  • ‘बेंचमार्क डिसेबिलिटी’ (40% या उससे अधिक) वाले लोगों को शिक्षा, सरकारी नौकरी और अन्य योजनाओं में आरक्षण व लाभ दिए जाते हैं।
  • न्याय में भूमिका
  • RPWD अधिनियम ने दिव्यांगता को केवल चिकित्सीय दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि अधिकार आधारित दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया।
  • इसका उद्देश्य था कि अदृश्य या उतार-चढ़ाव वाले विकार (जैसे- SCD) भी न्याय पा सकें।
  • परंतु व्यवहार में मेडिकल स्कोरिंग और कठोर प्रमाणन प्रक्रिया ने कई पीड़ितों को बाहर कर दिया।

हालिया मुद्दा

  • मार्च 2024 की नई दिशानिर्देशों में SCD को दिव्यांगता के रूप में मान्यता दी गई।
  • लेकिन इसे नौकरी और शिक्षा में आरक्षण (4% कोटा) से बाहर रखा गया।
  • इससे मरीजों और सामाजिक कार्यकर्ताओं में गहरा असंतोष है।

SCD को आरक्षण में शामिल न करने के तर्क

  • सरकार का तर्क है कि SCD हर मरीज में समान रूप से गंभीर नहीं होती।
  • कई मामलों में लक्षण एपिसोडिक (बार-बार आने वाले) हैं, निरंतर नहीं।
  • मेडिकल बोर्ड का आकलन प्रायः 40% सीमा से कम आता है।
  • नीति निर्माताओं का झुकाव दृश्यमान दिव्यांगताओं को प्राथमिकता देने की ओर है।

प्रभाव

  • सामाजिक बहिष्कार: आदिवासी और दलित समुदाय सबसे अधिक प्रभावित।
  • शैक्षिक बाधाएँ: बार-बार अस्पताल जाने से पढ़ाई बाधित।
  • रोजगार में कठिनाई: दर्द और थकान के कारण स्थायी काम नहीं कर पाते।
  • स्वास्थ्य असमानता: गरीब परिवार प्रमाण पत्र और इलाज तक नहीं पहुँच पाते।
  • मानसिक स्वास्थ्य : कलंक और भेदभाव से अवसाद और आत्मसम्मान की कमी।

चुनौतियाँ

  • अस्पष्ट प्रमाणन : अलग-अलग डॉक्टर व अस्पताल अलग-अलग प्रतिशत देते हैं।
  • 40% सीमा का कठोर नियम : अदृश्य विकलांगता वाले लोग बाहर रह जाते हैं।
  • भौगोलिक बाधाएँ : दूरदराज़ क्षेत्रों में जांच व प्रमाणपत्र बनवाना कठिन।
  • नीतिगत उदासीनता : SCD को “पूर्ण दिव्यांगता” नहीं माना जाता।
  • आर्थिक कठिनाई : गरीब मरीज इलाज और ट्रांसफ्यूजन का खर्च नहीं उठा पाते।

आगे की राह

  • आरक्षण में शामिल करना: SCD को सार्वजनिक रोजगार व शिक्षा में आरक्षण के दायरे में लाना।
  • प्रमाणन प्रक्रिया में सुधार: एपिसोडिक और अदृश्य दिव्यांगताओं को भी गिना जाए।
  • समुदाय आधारित दृष्टिकोण: सामाजिक-आर्थिक स्थिति और जीवन पर प्रभाव को भी मान्यता मिले।
  • स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच: ग्रामीण व आदिवासी क्षेत्रों में परीक्षण और इलाज की व्यवस्था।
  • जागरूकता अभियान: समाज में कलंक कम करने और सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता।
  • अधिकार आधारित दृष्टिकोण: दिव्यांगता को केवल बीमारी नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय का प्रश्न मानना।

निष्कर्ष

सिकल सेल विकार केवल एक चिकित्सीय समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और अधिकारों का प्रश्न है। यदि इसे आरक्षण और अन्य सुरक्षा से वंचित रखा जाता है, तो यह “समावेश के नाम पर बहिष्कार” होगा। इसलिए भारत को अपने कानून और नीतियों को इस तरह ढालना होगा कि SCD पीड़ितों को वास्तविक समान अवसर और गरिमा मिल सके।

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