| GS Paper-II : Polity & Governance |
- केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक याचिका पर जवाब दाखिल करते हुए कहा है कि “मतदान का अधिकार” एक वैधानिक अधिकार (Statutory Right) है, जबकि “मतदान की स्वतंत्रता” संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Expression) का हिस्सा है।
- यह मामला जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 53(2) और निर्वाचन नियम, 1961 के प्रपत्र 21, 21बी और नियम 11 से जुड़ा है, जो निर्विरोध निर्वाचनों (Uncontested Elections) से संबंधित हैं।

पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता — सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) — ने यह तर्क दिया कि जब किसी निर्वाचन क्षेत्र में केवल एक उम्मीदवार होता है और उसे बिना मतदान कराए निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है, तो मतदाताओं के पास NOTA (None of the Above) का विकल्प प्रयोग करने का अधिकार नहीं रह जाता।
यह स्थिति नागरिकों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार (Article 19(1)(A)) का उल्लंघन करती है।
केंद्र सरकार का पक्ष
- मतदान का अधिकार (Right to Vote)
- यह केवल एक वैधानिक अधिकार है, जो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62 द्वारा प्रदान किया गया है।
- यह कानून द्वारा सीमित है और इसे मौलिक अधिकार नहीं माना जा सकता।
- मतदान की स्वतंत्रता (Freedom of Voting)
- यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है।
- इसका प्रयोग तब होता है जब मतदाता मतदान केंद्र पर जाकर वोट डालता है — यानी यह मताधिकार के प्रयोग की अंतिम अवस्था में अभिव्यक्ति का रूप लेती है।
- मुख्य अंतर
- मतदान का अधिकार: वैधानिक (Statutory)
- मतदान की स्वतंत्रता: मौलिक (Fundamental - अभिव्यक्ति का हिस्सा)
- नोटा (NOTA) को उम्मीदवार नहीं माना जा सकता
- सरकार ने स्पष्ट किया कि नोटा को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 79(बी) में परिभाषित “उम्मीदवार” नहीं कहा जा सकता।
- नोटा केवल एक विकल्प या अभिव्यक्ति का माध्यम है, न कि कोई कानूनी इकाई।
- निर्विरोध चुनाव का औचित्य
- जब उम्मीदवारों की संख्या सीटों के बराबर होती है, तो मतदान की आवश्यकता नहीं होती (धारा 53(2))।
- यदि उम्मीदवारों की संख्या सीटों से कम हो, तो भी मतदान नहीं होगा (धारा 53(3))।
- ऐसे में “मतदान की स्वतंत्रता” लागू ही नहीं होती क्योंकि मतदान हुआ ही नहीं।
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व निर्णय का हवाला
- केंद्र ने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) बनाम भारत सरकार (2003) मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था:
- "मतदान का अधिकार वैधानिक है, परंतु जब मतदाता अपना मत देता है, तब उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रकट होती है।"
चुनाव आयोग का पक्ष
- चुनाव आयोग ने भी केंद्र से सहमति जताई कि नोटा को उम्मीदवार मानने के लिए विधायी संशोधन की आवश्यकता होगी।
- आयोग ने बताया कि 1951 से 2024 के बीच कुल 20 आम चुनावों में केवल 9 निर्विरोध चुनाव हुए हैं।
- 1971 से अब तक मात्र 6
- 1991 के बाद केवल 1
- इससे स्पष्ट होता है कि लोकतंत्र के विकास के साथ निर्विरोध चुनाव अत्यंत दुर्लभ हो गए हैं।
विश्लेषणात्मक निष्कर्ष
|
बिंदु
|
विवरण
|
|
मुख्य प्रावधान
|
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 53(2), 62; निर्वाचन नियम, 1961
|
|
संविधान अनुच्छेद
|
अनुच्छेद 19(1)(A) – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
|
|
प्रमुख मामला
|
PUCL बनाम भारत सरकार (2003)
|
|
केंद्र का मत
|
मतदान का अधिकार वैधानिक, मतदान की स्वतंत्रता मौलिक
|
|
चुनाव आयोग का मत
|
NOTA ‘उम्मीदवार’ नहीं; विधायी संशोधन आवश्यक
|
|
महत्व
|
यह मामला लोकतांत्रिक अधिकारों और निर्वाचन व्यवस्था की संवैधानिक व्याख्या से जुड़ा है।
|
निष्कर्ष:
केंद्र सरकार का यह रुख लोकतांत्रिक अधिकारों और चुनावी प्रक्रिया की संवैधानिक सीमाओं के बीच संतुलन की बहस को पुनः जीवित करता है। यह प्रश्न उठाता है कि क्या नागरिकों की असहमति (NOTA) भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना उनका समर्थन — और क्या लोकतंत्र केवल मतदान तक सीमित है, या उसके अर्थ में ‘चयन की स्वतंत्रता’ भी शामिल होनी चाहिए।
|
UPSC प्रश्न
(प्रश्न 1) — "मतदान का अधिकार और मतदान की स्वतंत्रता के बीच अंतर स्पष्ट कीजिए। क्या NOTA का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आता है?" (प्रश्न 2) — "जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 53(2) और NOTA के संदर्भ में हालिया विवाद पर चर्चा कीजिए।"
|