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म्यांमार में तख्तापलट : कारण और प्रभाव

(प्रारंभिक परीक्षा-  राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी संबंध, भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)

संदर्भ

  • हाल ही में, म्यांमार की सेना ने देश की नवनिर्वाचित संसद की निर्धारित बैठक से पूर्व ही तख्तापलट कर सत्ता हथिया ली है। लोकतांत्रिक कार्यकर्ता व स्टेट कॉउंसलर ‘आंग सान सू की’ और राष्ट्रपति विन मिंट सहित सत्ताधारी दल के कई नेताओं को हिरासत में ले लिया गया है।
  • सेना ने अपने स्वयं के टेलीविज़न पर प्रसारण में एक वर्ष के आपातकाल की घोषणा की है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव और पश्चिमी देशों द्वारा चिंता जताए जाने के बाद ‘तातमादव’ (म्यांमार की सेना का आधिकारिक नाम) ने कहा कि संविधान की रक्षा और उसका पालन करने की आवश्यकता है। म्यांमार में दशकों के सैन्य तानाशाही के बाद 10 वर्ष पूर्व ही लोकतंत्र के लिये संक्रमण शुरू हुआ था।

सेना का संविधान और लोकतांत्रिक संक्रमण की विफलता

  • नया संविधान- जूंटा (Junta) के नेतृत्व वाले म्यांमार में राजनीतिक माहौल वर्ष 2010 के आसपास बदलना शुरू हुआ। वर्ष 2008 में सेना ने एक नया संविधान लिखा था, जिसमें संक्रमण की स्थिति में भी सैन्य जनरलों के हितों की रक्षा को सुनिश्चित किया गया था।
  • वर्ष 2010 का चुनाव- वर्ष 1992 से देश पर शासन कर रहे ‘थान श्वे’ ने वफादार युवा सैनिकों को बढ़ावा दिया तथा नए संविधान के तहत चुनाव करवाए। उस समय ‘आंग सान सू की’ समर्थित ‘नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी’ (एन.एल.डी.) ने संविधान और वर्ष 2010 के चुनाव का बहिष्कार किया, जिससे सेना समर्थित यू.एस.डी.पी. पार्टी को जीत मिली।
  • दृष्टिकोण में बदलाव- अगले पाँच वर्षों में सेना ने सरकार और समाज पर अपनी पकड़ ढीली कर दी और सू की सहित कई राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया गया। मीडिया सेंसरशिप में ढील दी गई। बराक ओबामा ने वर्ष 2012 में म्यांमार का दौरा किया और ‘सू की’ की पार्टी ने भी अपने पूर्व के दृष्टिकोण में बदलाव करते हुए सेना द्वारा लिखित संविधान को स्वीकार कर लिया।
  • वर्ष 2015 का चुनाव- वर्ष 2015 में देश के पहले स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव में कई दलों ने भाग लिया, जिसमें एन.एल.डी. ने जीत दर्ज करते हुए सरकार बनाई और यह आशा की गई कि देश लोकतंत्र के लिये पूर्ण परिवर्तन के रास्ते पर है। यद्यपि, वर्ष 2008 के संविधान में इस तरह के परिवर्तन को रोकने के लिये पर्याप्त उपाय हैं।
  • राष्ट्रपति पद की पात्रता- संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति को सैन्य अनुभव होने के साथ-साथ राष्ट्रपति, उनके पति/पत्नी या बच्चों में से कोई भी किसी विदेशी शक्ति के अधीन या किसी विदेशी देश का नागरिक नहीं होना चाहिये। सू की के दो बेटे ब्रिटिश नागरिक हैं, अत: वे राष्ट्रपति नहीं बन सकीं।
  • सेना का नियंत्रण- इसके अतिरिक्त रक्षा और आंतरिक मंत्रालय को सेना द्वारा नियंत्रित किये जाने का भी प्रावधान है। साथ ही, संसद की कुल सीटों में से 25% (664 सदस्यीय सदन में से 166) सेना के लिये आरक्षित हैं, जो संविधान में किसी भी संशोधन की स्थिति में उसको वीटो प्रदान करता है। इस प्रकार, किसी निर्वाचित सरकार को सत्ता हस्तांतरित करने की स्थिति में भी सेना ने यह सुनिश्चित किया कि वह रक्षा और आंतरिक सुरक्षा नीतियों को अपने अनुसार जारी रखेगी।

तख्तापलट : प्रत्यक्ष व अ प्रत्यक्ष कारण

  • ‘सू की’ की बढ़ती लोकप्रियता- नवंबर में चुनाव के बाद से एन.एल.डी. और सेना के बीच तनाव बढ़ रहा है। वर्ष 2015 और 2020 के चुनाव परिणामों ने ‘सू की’ की बढ़ती लोकप्रियता और सेना की अलोकप्रियता को प्रदर्शित किया है। पिछले चुनाव सेना द्वारा रोहिंग्या पर सख्त कार्रवाई के बाद संपन्न हुए। सेना भी कमांडर इन चीफ जनरल ‘मिन आंग हलैंग’ को देश की सुरक्षा के लिये समर्पित एक सैनिक के रूप में प्रायोजित कर रही थी। हालाँकि, इन कार्यों से भी सेना समर्थित राजनेताओं को चुनाव जीतने में मदद नहीं प्राप्त हुई।
  • धोखाधड़ी का आरोप- म्यांमार के सैन्य प्रमुख ने पिछले वर्ष के चुनाव परिणामों पर संदेह जताया था। इन चुनावों में ‘आंग सान सू की’ की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एन.एल.डी.) ने लगभग 80% वोट हासिल करके चुनावों में जीत दर्ज की थी, जबकि सेना समर्थित ‘यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी’ (यू.एस.डी.पी.) को कड़ी हार का सामना करना पड़ा था। सेना ने बिना किसी सबूत के चुनाव में धोखाधड़ी के यू.एस.डी.पी. के आरोपों का समर्थन किया और चुनाव में डाले गए लगभग 9 मिलियन वोटों की सत्यता पर सवाल उठाया है।
  • सैन्य भूमिका में कमी- एन.एल.डी. के लिये इस जनादेश को संवैधानिक सुधार की योजना के रूप में देखा जा रहा था, जिसका उद्देश्य राजनीति और शासन में सैन्य भूमिका को कम करना है।
  • सैन्य हितों पर खतरा- इससे सेना को यह आभास हो गया कि सीमित लोकतांत्रिक प्रयोग से भी ‘सू की’ की लोकप्रियता में वृद्धि के साथ सैन्य हितों पर भारी खतरा मंडरा रहा है। हालाँकि, सुश्री सू की ने अपने पहले कार्यकाल में सेना के साथ शांति और सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की और रोहिंग्या पर सेना की कार्रवाई का बचाव किया परंतु सेना अभी भी प्रसन्न नहीं थी।

संभावनाएँ

  • लोकतांत्रिक संक्रमण पर खतरा- सेना ने आपातकाल की घोषणा इसलिये की है क्योंकि एन.एल.डी. सरकार चुनावी धोखाधड़ी पर उसकी शिकायतों पर कार्रवाई करने में विफल रही है। सेना ने बिना किसी समय सीमा के चुनाव का वादा किया है, जिससे लोकतांत्रिक संक्रमण पर विराम लग सकता है।
  • चीन से निकटता- अमेरिका और भारत ने इस पर गहरी चिंता व्यक्त की है, परंतु चीन की तरफ से कोई सख्त प्रतिक्रिया नहीं आई है। इसका तात्पर्य यह है कि अमेरिकी आर्थिक दबावों और आर्थिक प्रतिबंधों की स्थिति में म्यांमार चीन के करीब जा सकता है, जो पहले से ही म्यांमार में भारी निवेश कर रहा है।
  • अशांति की संभावना- हालाँकि, ‘सू की’ की लोकप्रियता और पाँच वर्षों से सत्तासीन एन.एल.डी. इसमें बाधक होगी, जो वहाँ की स्थिति को और भी बदतर कर सकता है। म्यांमार में अशांति भारत के दृष्टिकोण से सही नहीं है।
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