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अधिकरणों की दक्षता का मुद्दा

(प्रारंभिक परीक्षा : भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली, पंचायती राज, लोकनीति, अधिकारों संबंधी मुद्दे इत्यादि)
(मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 : संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय; कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य)

संदर्भ

हाल ही में, भारत सरकार द्वारा जारी किये गए ‘अधिकरण सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा शर्तें) अध्यादेश, 2021’ को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।

अध्यादेश के प्रावधान

  • इस अध्यादेश के माध्यम से कई अपीलीय न्यायाधिकरणों और अधिकरणों समाप्त कर, उनके क्षेत्राधिकार अन्य न्यायिक निकायों को स्थानांतरित कर दिये गए हैं।
  • यह अध्यादेश ‘वित्त अधिनियम, 2017’ में भी संशोधन करता है ताकि इस अधिनियम में उल्लिखित ‘खोज-सह-चयन समितियों’ (Search-Cum-Seletion Committees) की संरचना और अधिकरणों के सदस्यों के कार्यकाल संबंधी प्रावधानों में भी संशोधन किया जा सके।
  • इसके अनुसार, खोज-सह-चयन समिति में निम्नलिखित व्यक्ति शामिल होंगे–
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश (अध्यक्ष)
  • केंद्र सरकार द्वारा नामित दो सचिव
  • मौजूदा या निवर्तमान अध्यक्ष या सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश।
  • उस मंत्रालय का सचिव, जिसके तहत अधिकरण का गठन किया जाना है।
  • अधिकरण के अध्यक्ष पद के लिये कार्यकाल 4 वर्ष या 70 वर्ष की आयु, जो भी पहले हो, तक होगा।
  • अधिकरण के अन्य सदस्यों के लिये कार्यकाल 4 वर्ष या 67 वर्ष की आयु, जो भी पहले हो, तक होगा।
  • इसके अलावा, इस अध्यादेश के ज़रिये निम्नलिखित अधिनियमों के माध्यम से स्थापित किये गए अधिकरणों को भी ‘वित्त अधिनियम, 2017’ के दायरे से बाहर कर दिया गया है–
  • सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952
  • कॉपीराइट अधिनियम, 1957
  • सीमा शुल्क अधिनियम, 1962
  • पेटेंट अधिनियम, 1970
  • भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण अधिनियम, 1994
  • ट्रेड मार्क्स अधिनियम, 1999
  • माल के भौगोलिक संकेत (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999
  • राष्ट्रीय राजमार्ग नियंत्रण (भूमि और यातायात) अधिनियम, 2002

वित्त अधिनियम, 2017

इस अधिनियम के तहत  केंद्र सरकार को सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क और सेवा कर जैसे अपीलीय न्यायाधिकरणों के सदस्यों की योग्यता, उनकी सेवा-शर्तें तथा अधिकरण के लिये खोज-सह-चयन समिति की संरचना के लिये नियम अधिसूचित करने का अधिकार प्राप्त है।

 न्यायाधिकरणों की समाप्ति के कारण

  • इनके निर्णयों की गुणवत्ता अधिकांश मामलों में खराब रहना।
  • उनके अंतिम निर्णय में अत्यधिक देरी होना।
  • जटिल व खर्चीली न्यायिक प्रक्रिया।
  • वर्ष 1985 से 'बार एसोसिएशनों' द्वारा लगातार इन न्यायाधिकरणों की कार्यपालिका से स्वतंत्रता के संबंध में सवाल उठाना

अध्यादेश की आलोचना

  • विधायी प्रक्रिया को दरकिनार किया गया तथा किसी हितधारक समूह से परामर्श किये बिना 'फिल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण' जैसे कई न्यायाधिकरण समाप्त किये गए।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2019 में 'रोज़र मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक' मामले में कहा था कि किसी न्यायाधिकरण को समाप्त करने से पहले उसके न्यायिक प्रभाव का मूल्यांकन किया जाएगा, परंतु इस अध्यादेश में इस निर्देश का पालन नहीं किया गया है।
  • इस अध्यादेश में वर्ष 2020 के 'मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ' मामले में दिये गए ‘खोज-सह-चयन समिति की संरचना तथा उसकी अनुशासनात्मक कार्यवाही से संबंधित’ सुझावों को शामिल तो किया गया, परंतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अधिकरणों के अध्यक्ष तथा सदस्यों के कार्यकाल की अवधि को 5 वर्ष तय करने के निर्देश का पालन नहीं किया गया।
  • इसके अलावा, केंद्र सरकार ने अभी तक ‘राष्ट्रीय अधिकरण आयोग’ (NTC) का गठन नहीं किया है, जो अधिकरण के कामकाज, सदस्यों की नियुक्ति और उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की निगरानी करने के लिये संकल्पित होता। यह आयोग अधिकरणों की प्रशासनिक और ढाँचागत ज़रूरतों की देखभाल के लिये एक स्वतंत्र छत्रक (Umbrella) निकाय है। उल्लेखनीय है कि एन.टी.सी. का विचार पहली बार वर्ष 1997 के 'एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ' मामले में रखा गया था।

अध्यादेश

  • अनुच्छेद 123 : राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति
  • अनुच्छेद 213 : राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति
  • राष्ट्रपति/राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह पर अध्यादेश जारी करता है या वापस लेता है।
  • अध्यादेश को पूर्ववर्ती तिथि से भी लागू किया जा सकता है।
  • अध्यादेश संसद के किसी भी अधिनियम को संशोधित अथवा निरसित कर सकता है।
  • संविधान संशोधन हेतु अध्यादेश जारी नहीं किये जा सकते हैं।

 राष्ट्रीय अधिकरण आयोग (NTC) को संवैधानिक दर्ज़ा देने के निहितार्थ

  • अधिकरणों के कामकाज, सदस्यों की नियुक्ति और उन्हें हटाने के संबंध में कार्यपालिकायी हस्तक्षेप कम किया जा सकेगा।
  • देशभर के सभी न्यायाधिकरणों में समान प्रशासनिक व्यवस्था का सूत्रपात किया जा सकेगा।
  • विभिन्न न्यायाधिकरणों के प्रशासनिक और न्यायिक कार्यों को अलग किया जा सकेगा।
  • एक बोर्ड, एक सीईओ और एक सचिवालय ‘एन.टी.सी.’ की एक 'निगमीकृत' संरचना प्रदान करेंगे, इससे न्यायाधिकरणों की कार्यक्षमता में वृद्धि होगी।
  • अतः एन.टी.सी. की स्थापना संवैधानिक संशोधन के माध्यम से की जानी चाहिये ताकि इसके कार्य, परिचालन और वित्तीय स्वतंत्रता की गारंटी सुनिश्चित हो सके।

राष्ट्रीय अधिकरण आयोग (एन.टी.सी.) के प्रशासनिक कार्य

  • अधिकरणों के प्रशासनिक कार्यों का निरीक्षण करना।
  • अधिकरणों की दक्षता और प्रशासनिक प्रक्रियाओं के लिये मानक निर्धारित करना।
  • न्यायाधिकरण के सदस्यों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही करना तथा उनकी नियुक्ति के लिये एक स्वतंत्र भर्ती निकाय के रूप में कार्य करना।
  • अधिकरणों की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिये उनके सदस्यों के वेतन, भत्तों व सेवा-शर्तों का निर्धारित करना।
  • अधिकरण के सदस्यों, वादियों और वकीलों को सहायता सेवाएँ प्रदान करना।
  • इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये प्रशासनिक कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने व उन्हें आधुनिक बनाने, न्यायाधिकरणों के बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने आदि की आवश्यकता होगी।

निष्कर्ष

  • अधिकरणों की दक्षता बढ़ाने तथा इनमें कार्यपालिकायी हस्तक्षेप कम करने के लिये एन.टी.सी. का गठन करना अनिवार्य प्रतीत होता है। इसके अलावा, प्रशासनिक जवाबदेहिता सुनिश्चित करने, स्वतंत्र व निष्पक्ष निरीक्षण तंत्र गठित करने तथा सुदृढ़ कानूनी ढाँचा स्थापित करने के लिये भी एन.टी.सी. आवश्यक है।
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