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मनरेगा ट्रैकर रिपोर्ट : समाज और अर्थव्यवस्था के लिये निहितार्थ 

(सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र-2 & 3 : सामाजिक न्याय, सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय; आर्थिक विकास : योजना, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से संबंधित विषय)

संदर्भ

  • हाल ही में, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के कार्यान्वयन की निगरानी करने वाले दो संगठनों; पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी’ (PEAG) और ‘लिबटेक इंडिया’ ने सरकार के प्रबंधन सूचना प्रणाली (MIS डाटा का उपयोग करके मनरेगा ट्रैकर नामक रिपोर्ट जारी की है।
  • चूँकि, मनरेगा अनौपचारिक क्षेत्र का अहम हिस्सा है, इसलिये उक्त रिपोर्ट भारत के सामाजिक एवं आर्थिक परिदृश्य को भी उद्घाटित करती है। ध्यातव्य है कि भारत में कुल रोज़गार का लगभग 90 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र से संबद्ध है।

मनरेगा: संक्षिप्त परिचय एवं इतिहास

  • राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (NREGA) को वर्ष 2005 में अधिसूचित एवं वर्ष 2006 में लागू किया गया था। शुरुआत में इस योजना को ग्रामीण भारत में मौजूद गहरे आर्थिक संकट के समाधान के रूप में देखा गया क्योंकि कृषि कार्य अलाभकारी साबित हो रहा था और शहरों की रोज़गार उपलब्ध कराने की क्षमता सीमित थी।
  • अतः लाखों ग्रामीण परिवारों को आजीविका प्रदान करने के लिये मनरेगा की शुरुआत की गई, जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में एक वित्तीय वर्ष में, प्रत्येक परिवार के एक व्यक्ति को कम-से-कम 100 दिनों का रोज़गार उपलब्ध कराना है। 
  • यह एक केंद्र प्रायोजित योजना है, जो सामाजिक सुरक्षा उपाय के साथ-साथ श्रम कानून का हिस्सा भी है। 

‘मनरेगा ट्रैकर’ रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष

  • अपर्याप्त धनराशि का आवंटन एवं भुगतान में विलंब
    • सरकार ने चालू वित्त वर्ष में मनरेगा के लिये पर्याप्त धनराशि आवंटित नहीं की। पेगा के अनुसार, इस वर्ष मनरेगा के लिये कुल बजट आवंटन पिछले वित्त वर्ष (2020-21) से 34 प्रतिशत कम है। 
    • यद्यपि, मनरेगा के अंतर्गत रोज़गार की मांग पिछले वर्ष की तुलना में 25 प्रतिशत कम है; फिर भी कोविड-पूर्व अवधि की तुलना में यह अधिक है।
    • ‘लिबटेक’ के अनुसार, अपर्याप्त बजट आवंटन एक वार्षिक परिघटना है, इसलिये प्रत्येक वर्ष के बजट आवंटन से ही पिछले वर्ष के बकाए का भुगतान करना पड़ता है। उदाहरण के लिये, चालू वर्ष में कुल 73,000 करोड़ रुपए के बजट आवंटन में से 17,000 करोड़ रुपए से अधिक का उपयोग ग्रामीण श्रमिकों को पिछले वित्त वर्ष में किये गये कार्यों के भुगतान के लिये किया जाएगा।
    • चूँकि, मनरेगा के लिये संपूर्ण पारिश्रमिक का भुगतान केंद्र सरकार द्वारा किया जाना है, अतः भुगतान में हो रही देरी के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को फटकार भी लगाई है। 
    • वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि ‘सरकार द्वारा मज़दूरों के पारिश्रमिक का भुगतान शीघ्रता से किया जाना चाहिये। यदि सरकार शीघ्र ही मज़दूरी का भुगतान नहीं कर पाती है तो उसे मुआवज़े की एक निर्धारित राशि का भुगतान करना होगा।'  

    रोज़गार की मांग में नकारात्मक गिरावट

    • उपर्युक्त रिपोर्ट के अनुसार, अपर्याप्त धनराशि का आवंटन काम की तलाश करने वाले श्रमिकों पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। 
    • ध्यातव्य है कि मनरेगा के दो महत्त्वपूर्ण विधायी प्रावधान हैं; पहला, काम की मांग के 15 दिनों के भीतर काम उपलब्ध कराना और ऐसा न होने पर श्रमिक को बेरोज़गारी भत्ता देना होगा तथा दूसरा, श्रमिकों को काम पूरा होने के 15 दिनों के भीतर भुगतान किया जाना, भुगतान की देरी के लिये भी वे मुआवज़े के हकदार होंगे।
    • गौरतलब है कि अपर्याप्त बजट आवंटन एवं इसके कारण मज़दूरी के भुगतान में होने वाली देरी से श्रमिक हतोत्साहित होते हैं और वे अपनी सामर्थ्य के अनुरूप श्रम की मांग नहीं कर पाते।
    • मनरेगा का बजट किस तरह तय किया जाता है, इस पर भी बहुत कम स्पष्टता है। एक बार अनुमानित ढंग से कम संख्या चुन लेने के बाद अधिकारियों को श्रमिकों की वास्तविक मांग दर्ज करने से हतोत्साहित किया जाता है। रिपोर्ट के अनुसार ऐसी मांगें लगभग 33 प्रतिशत हैं।
    • यहाँ सरकारों का यह तर्क है कि मनरेगा एक ‘मांग-संचालित’ योजना है। अतः अधिक मांग होने पर ही अधिक राशि का आवंटन किया जा सकता है। किंतु ज़मीनी स्तर पर योजना के कार्यान्वयन का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं का कहना है कि आरंभिक आवंटन अलग महत्त्व रखता है क्योंकि यदि आवंटित की गई राशि कम है, तो यह भुगतान में देरी को बढ़ावा देती है, फलस्वरूप रोज़गार की मांग हतोत्साहित होती है।

    श्रेणी आधारित भुगतान 

    • मार्च 2021 में, केंद्र सरकार ने एक सर्कुलर जारी करके राज्य सरकारों से मनरेगा भुगतान के लिये एक की बजाय तीन बिल भेजने को कहा, जिन्हें ‘फंड ट्रांसफर ऑर्डर’ (FTO) कहा जाता है। सरकार द्वारा इन तीन अलग बिलों की मांग अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ‘अन्य’ (Other) श्रेणियों में की गई है। हालाँकि, अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार ने ऐसा क्यों किया। 
    • ‘लिबटेक’ ने इस साल अप्रैल और सितंबर के बीच 10 राज्यों में 1.8 मिलियन से अधिक एफ.टी.ओ. के नमूनों का अध्ययन कर यह खुलासा किया है कि ‘अन्य’ वाली श्रेणी से संबंधित श्रमिकों को पारिश्रमिक के भुगतान में अत्यधिक देरी का सामना करना पड़ा। गौरतलब है कि ‘अन्य’ श्रेणी में मनरेगा के 87 प्रतिशत से भी अधिक श्रमिक हैं।  

    आगे की राह

    • भारतीय अर्थव्यवस्था में घरेलू मांग एवं खपत की स्थिति महामारी के पहले से ही सुस्त थी, महामारी के कारण यह और अधिक घट गई। मनरेगा के अंतर्गत पारिश्रमिक का समय पर भुगतान ग्रामीण क्षेत्र में घरेलू मांग को पुनर्जीवित कर सकता है और परोक्ष रूप से शहरी मांग को भी प्रेरित कर सकता है।  
    • विशेषज्ञों का मत है कि श्रेणी आधारित वेतन भुगतान का कोई सार्थक आशय नहीं है,  क्योंकि ऐसा करना योजना की सार्वभौमिक प्रकृति के विरुद्ध है। साथ ही, इससे निचले स्तर पर अनावश्यक प्रशासनिक बोझ बढ़ने से पारिश्रमिक भुगतान में विलंब ही होगा।
    • शोधकर्ताओं के अनुसार, यदि मनरेगा के अंतर्गत कार्य-स्थल प्रबंधक अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति श्रेणी से संबंधित है और इस श्रेणी की तुलना में ‘अन्य’ श्रेणी के श्रमिकों के भुगतान में देरी होती है, तो इससे विभिन्न समुदायों के बीच स्वाभाविक रूप से विद्वेष उत्पन्न होगा।
    • साथ ही, समय के साथ ऐसी विसंगतियाँ गैर-अनुसूचित जाति एवं गैर-अनुसूचित जनजाति के श्रमिकों को श्रम की मांग करने से हतोत्साहित कर सकती हैं।
    • समग्रतः मनरेगा जैसा स्व-लक्षित कार्यक्रम ग्रामीण श्रमिकों के हाथों में धन उपलब्ध कराकर उन्हें स्वैच्छिक ढंग से खर्च करने का अवसर देकर, उनके जीवन-स्तर में सुधारकर उन्हें बेहतर सौदेबाज़ी की स्थिति में लाता है। इससे उनके जीवन में गुणात्मक सुधार आता है और समावेशी विकास की प्रक्रिया को बल मिलता है।
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