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भारत के प्राकृतिक आपदा सम्बंधी अनुमान

(प्रारम्भिक परीक्षा: राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन सम्बंधी सामान्य मुद्दे, भारत का प्राकृतिक भूगोल)
(मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र- 1 व 3: महत्त्वपूर्ण भू-भौतिकीय घटनाएँ, जैसे- भूकम्प, सुनामी, ज्वालामुखी हलचल, चक्रवात, आदि/ संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन, आपदा)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा पहली बार ‘भारतीय भू-भाग पर जलवायु परिवर्तन का आकलन’ नामक रिपोर्ट जारी की गई है।

पृष्ठभूमि

इस रिपोर्ट में, भारत में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों, आँधी व तूफान (Thunderstorms), हीत वेव्स (Heat Waves), बाढ़ एवं सूखे से सम्बंधित चेतावनी का अनुमान व्यक्त किया गया है। साथ ही, रक्षोपायों को जल्द से जल्द अपनाए जाने की बात कही गई है। यह अनुमान मुख्यतः 21वीं सदी के उत्तरार्ध के दशकों से सम्बंधित है। इस रिपोर्ट में तापमान, मानसून, बाढ़ और सूखा के साथ-साथ समुद्री जल-स्तर, उष्णकटिबंधीय चक्रवात, हिमालयी हिमावरण और इसके कारणों व प्रभावों का उल्लेख किया गया है। इसमें भारतीय उपमहाद्वीप पर मानव-प्रेरित वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर चर्चा की गई है।

तापमान

  • सन् 1901 से 2018 के दौरान भारत के तापमान में प्रति वर्ष लगभग 0.7 °C की वृद्धि देखी गई है।
  • भारत के दक्षिणी क्षेत्रों की तुलना में उत्तरी क्षेत्रों में अधिक ऊष्मन या तापन हुआ है। यह ऊष्मन मुख्यतः शीत ऋतु के दौरान हुआ है।
  • हाल के 30 वर्षों की अवधि (1986-2015) में, वर्ष के सबसे गर्म दिन और सबसे ठंडी रात के तापमान में क्रमशः 0.63°C और 0.4°C की वृद्धि रिकॉर्ड की गई है।
  • वर्ष 1976 से 2005 के दशक के सापेक्ष गर्म दिनों की आवृत्ति में 55% की वृद्धि और गर्म रातों की आवृत्ति में 70% की वृद्धि का अनुमान व्यक्त किया गया है।
  • सदी के अंत तक, अप्रैल से जून के दौरान होने वाली हीटवेव (ताप लहर) की औसत अवधि में दोगुनी वृद्धि का अनुमान है। साथ ही, वर्ष 1976 से 2005 की अवधि की तुलना में इसकी आवृत्ति भी 3 से 4 गुना बढ़ सकती है। तापमान में वृद्धि का कारण हरितगृह गैसों का उत्सर्जन है। तापमान में इस घातांकीय वृद्धि के कारण ताप लहर में वृद्धि होगी।
  • सन् 1976 से 2005 के दौरान औसत तापमान के सापेक्ष 21वीं सदी के अंत तक भारत के औसत तापमान में 4.4°C की वृद्धि का अनुमान व्यक्त किया गया है।
  • सन् 1951 से 2015 की अवधि के दौरान उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर में समुद्र की सतह के तापमान में औसतन 1°C प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि हो रही है।
  • रिपोर्ट में, सबसे ख़राब स्थिति परिदृश्य को आर.सी.पी. 8.5 (Representative Concentration Pathways-RCP) से परिभाषित किया गया है, जो वायुमंडल में बढ़ते ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण 8.5 वाट प्रति वर्ग मीटर के एक विकिरण बल (Radiative Force) की गणना करता है।
  • विकिरण बल (Radiative Force) पृथ्वी (इसके वायुमंडल सहित) द्वारा अवशोषित सूर्य की प्रकाश ऊर्जा और अंतरिक्ष में वापस आने वाली ऊर्जा के बीच का अंतर है।
  • आर.सी.पी. 4.5 के एक मध्यवर्ती परिदृश्य के तहत, देश के औसत तापमान में  2.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है। हिंदुकुश हिमालयी क्षेत्र के तापमान में अधिक वृद्धि होने की सम्भावना है, जहाँ औसत तापमान 5.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। यह क्षेत्र तापमान, वर्षा और बर्फ़बारी में जलवायु से सम्बंधित परिवर्तनशीलता के लिये पहले से ही अत्यधिक सम्वेदनशील है।

मानसून और वर्षा

  • सन् 1951-2015 के दौरान भारत में वार्षिक वर्षा में गिरावट की प्रवृति देखी गई है। यह कमी मध्य भारत, केरल और सुदूर पूर्वोत्तर क्षेत्रों में 1 से 5 मिमी. के बीच रही है।
  • इसके विपरीत, जम्मू और कश्मीर तथा उत्तर पश्चिमी भारत में वर्षा में वृद्धि की प्रवृति देखी गई।
  • आने वाले दशकों में मानसूनी वर्षा की औसत, चरम स्थिति और अंतर-वार्षिक परिवर्तनशीलता में काफी वृद्धि देखी जा सकती है। वर्ष 2100 तक मानसून परिवर्तनशीलता (Monsoon Variability) 14% अनुमानित है और यह 22.5% तक भी बढ़ सकती है।
  • वर्ष 1950 से 2015 की समयावधि के दौरान, ग्रीष्म मानसून (जून से सितम्बर तक) के दौरान वर्षा में 6% की कमी आई है। वर्षा में उल्लेखनीय कमी सिंधु-गंगा व पश्चिमी घाट क्षेत्र में देखी गई है।
  • इसके अलावा, स्थानीयकृत भारी वर्षा की आवृत्ति में वृद्धि हुई है।

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय: इतिहास

  • पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय को प्रारम्भ में जुलाई 1981 में महासागर विकास विभाग (Department of Ocean Development-DOD) के रूप में स्थापित किया गया था। उस समय यह सीधे प्रधानमंत्री के प्रभार के तहत कैबिनेट सचिवालय का एक हिस्सा था। मार्च 1982 में यह एक अलग विभाग बन गया।
  • फरवरी 2006 में, भारत सरकार ने इस विभाग को ‘महासागर विकास मंत्रालय’ के रूप में अधिसूचित किया। 12 जुलाई, 2006 को पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय अस्तित्त्व में आया।
  • भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD), भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (IITM) और नेशनल सेंटर फॉर मीडियम-रेंज वेदर फोरकास्टिंग (NCMRWF) इस मंत्रालय द्वारा शासित होते हैं।

सूखा और बाढ़

  • 1950 के दशक से, भारी वर्षा की घटनाओं और शुष्क दिनों की आवृत्ति व तीव्रता बढ़ गई है। यह प्रवृति क्रमशः दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून-सितम्बर) और पूर्वोत्तर मानसून (अक्तूबर-दिसम्बर) के दौरान मध्य भारत तथा दक्षिण प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में प्रमुखता से देखी जा रही है।
  • वर्ष 1901 से, मानसून के दौरान ही भारत में 22 सूखे पड़े हैं। इसके अतिरिक्त, सूखे के अंतर्गत क्षेत्र में प्रति दशक 1.3% की वृद्धि हुई है। साथ ही, सन् 1951 से 2016 की अवधि के दौरान इसकी आवृत्ति और भयानकता में भी वृद्धि हुई है।
  • ग्रीष्म मानसून वर्षा में कमी के कारण, विशेष रूप से मध्य भारत, दक्षिण पश्चिम तट, दक्षिणी प्रायद्वीप और उत्तर-पूर्वी भारत में सूखे की घटनाओं में वृद्धि हुई है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, मध्य और उत्तरी भारत में प्रति दशक एक या दो सूखे की वृद्धि का भी अनुमान व्यक्त किया गया है। वर्ष 1976 से 2005 के दौरान पड़ने वाले सूखे की अपेक्षा पूर्वी भारत प्रति दशक दो अतिरिक्त सूखे की घटनाओं का सामना कर सकता है, जबकि दक्षिणी प्रायद्वीप में सूखे की घटनाओं की संख्या में एक या दो की कमी का अनुमान है।
  • पूर्वी तट, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, गुजरात, कोंकण के साथ-साथ मुम्बई, चेन्नई व कोलकाता जैसे क्षेत्रों एवं शहरों में बाढ़ का खतरा अधिक है।
  • तेज़ गति से हिमनद व बर्फ के पिघलने के कारण हिमालय बेसिन के बाढ़ के मैदानों में अधिक बड़ी/भयंकर बाढ़ का अनुमान है। बाढ़ की इन प्रमुख घटनाओं का अनुमान ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंधु नदियों में किया गया है।

समुद्र जल-स्तर

  • वर्ष 1993-2015 के दौरान, उत्तरी हिंद महासागर (अरब सागर व बंगाल की खाड़ी) के समुद्र के स्तर में प्रतिवर्ष 3.3 मिमी. की वृद्धि दर्ज़ की गई है, जो कि ‘समुद्री स्तर के वैश्विक औसत’ की वृद्धि के बराबर है।
  • इस सदी के अंत तक उत्तरी हिंद महासागर के स्तर में 300 मिमी. तक वृद्धि का अनुमान है।
  • रिपोर्ट द्वारा अनुमानित चरम जलवायु परिदृश्य में, आंध्र प्रदेश और गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना डेल्टा बेसिनों पर बाढ़ का खतरा बढ़ गया है। वर्ष 2030 तक, उत्तरी हिंद महासागर के तटीय और उसके द्वीपों पर निवास करने वाले लगभग 340 मिलियन निवासी तटीय जोखिमों का सामना कर सकते हैं।

ऊष्णकटिबंधी चक्रवात

  • 20वीं सदी (1951–2018) के मध्य से उत्तरी हिंद महासागर बेसिन के ऊपर उठने वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की वार्षिक आवृत्ति में उल्लेखनीय कमी आई है।
  • इसके विपरीत, मानसून के उपरांत भीषण चक्रवाती तूफान की आवृत्ति पिछले दो दशकों में काफी बढ़ गई है। इसका मतलब है कि प्रति दशक एक भीषण चक्रवाती तूफान उत्पन्न होता है।
  • वर्ष 1950 से पूर्व बंगाल की खाड़ी में लगभग 94 गम्भीर चक्रवाती तूफान उत्पन्न हुए। 1950 के बाद यह संख्या बढ़कर 140 हो गई। इसी अवधि में अरब सागर में उत्पन्न होने वाले चक्रवातों की संख्या 29 से बढ़कर 44 हो गई है।
  • अरब सागर में उठने वाले तूफान/झंझा अधिक शक्तिशाली हो रहे हैं। साथ ही, इस प्रवृत्ति के जारी रहने का भी अनुमान है। पिछले दो दशकों में अरब सागर में बनने वाले अत्यंत भयंकर चक्रवाती तूफानों की संख्या में वृद्धि हुई है।

हिमालय पर हिमाच्छादन/आवरण (Himalaya snow cover)

  • पिछले सात दशकों के दौरान हिंदुकुश हिमालय के औसत तापमान में प्रति दशक 0.2°C का ऊष्मन हुआ है, जिस कारण पिछले चार से पाँच दशकों में हिमावरण और ग्लेशियरों में गिरावट आई है। इसके विपरीत, काराकोरम हिमालय में शीतऋतु के दौरान उच्च हिमपात देखा गया है जो इस क्षेत्र में हिमनद संकुचन को रोकता है।
  • इसके अलावा, इस सदी के अंत तक हिंदुकुश हिमालय के तापमान में 2.6 से 4.6°C तक वृद्धि का अनुमान है।

climate

जलवायु परिवर्तन के कारण व प्रभाव

  • जलवायु परिवर्तन में मुख्य योगदानकर्ता एंथ्रोपोजेनिक (Anthropogenic) गतिविधियाँ हैं जो हरितगृह गैसों की सांद्रता में वृद्धि करती हैं। इनसे तापमान और वायुमंडलीय आर्द्रता की मात्रा में वृद्धि हुई है।
  • जलवाष्प की उच्च सांद्रता मानसून के दौरान तीव्र वर्षा का कारण बनती है। तापन (Heating) से वाष्पीकरण होता है, जो सीधे तौर पर मृदा की नमी में कमी से जुड़ा है, जिसके परिणामस्वरूप सूखे की घटनाएँ होती हैं।
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि इस परिघटना के कारण खाद्य उत्पादन में कमी के साथ-साथ पेयजल की उपलब्धता में भी कमी में वृद्धि हो सकती है।
  • साथ ही, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि समुद्र के बढ़ते जल-स्तर के कारण भारत के बड़े शहर अपरदन की चपेट में आ सकते हैं जो तटीय परियोजनाओं को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
  • हरितगृह गैस और तापन भारत जैसे देशों के लिये चिंताजनक स्थिति को दर्शाते हैं क्योंकि इनसे सूखे की तीव्रता बढ़ जाएगी और मानसूनी वर्षा की परिवर्तनशीलता में भी वृद्धि होगी।

जलवायु परिवर्तन के समाधान हेतु सुझाव

  • जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की क्षेत्रीय भिन्नताओं को समझने के लिये और अधिक अनुसंधान एवं विकासात्मक गतिविधियों की आवश्यकता है।
  • जल संचयन (Water Harvesting) को व्यापक स्तर पर प्रोत्साहित किये जाने की आवश्यकता है।
  • धारणीय कृषि (Sustainable Farming) एवं कृषि वानिकी को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
  • वनीकरण (afforestation) के प्रयासों में तीव्रता लानी चाहिये।
  • जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
  • कार्बन कराधान (Carbon Taxation)  के प्रावधान पर विचार किया जाना चाहिये।
  • जनसंख्या के सबसे सम्वेदनशील वर्ग को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से आर्थिक एवं सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिये।

रिपोर्ट का महत्त्व

  • भारत के लिये यह पहली जलवायु परिवर्तन आकलन रिपोर्ट है। यह भविष्य के सम्भावित जलवायु परिवर्तन अनुमानों पर एक स्पष्ट एवं व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करती है, जो नीति-निर्माताओं और शिक्षाविदों के लिये अत्यधिक उपयोगी है।
  • यह पहला ऐसा मूल्यांकन है, जहाँ मौजूदा अनुमानों को भूमि एवं समुद्र के तापमान, मानसूनी वर्षा, बाढ़, सूखा आदि को ऐतिहासिक रुझानों के संदर्भ में रखकर आकलन किया गया है।
  • इस रिपोर्ट की एक कमी है है कि यह जलवायु परिवर्तन से निपटनेके लिये विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों के वित्तपोषण के मुद्दे पर मौन है (यह मुद्दा रिपोर्ट के दायरे से बाहर है)।

रिप्रज़ेंटेटिव कंसंट्रेशन पाथवे (Representative Concentration Pathways-RCPs)

वर्ष 2013-14 में प्रकाशित जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) की पाँचवीं आकलन रिपोर्ट  (Assessment Report 5 - AR5)। इस रिपोर्ट के निष्कर्ष एक नए सेट पर आधारित होंगे, जो “उत्सर्जन परिदृश्य पर विशेष रिपोर्ट” (Special Report On Emissions Scenarios) के मानकों को प्रतिस्थापित करते हैं, जिन्हें पिछली दो रिपोर्टों में भी शामिल किया गया था। इन्हीं नए परिदृश्यों को रिप्रज़ेंटेटिव कंसंट्रेशन पाथवे (RCPs) कहते हैं। इनकी संख्या चार है: RCP8.5, RCP6, RCP4.5, RCP2.6 (RCP3-PD)

आगे की राह

यह रिपोर्ट नीति निर्माताओं, शोधकर्ताओं, सामाजिक वैज्ञानिकों के साथ-साथ अर्थशास्त्रियों और छात्रों के लिये बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। नीति निर्माताओं के लिये, भविष्य के सम्भावित जलवायु परिवर्तन अनुमानों पर एक स्पष्ट व व्यापक दृष्टिकोण रखना महत्त्वपूर्ण है। यह रिपोर्ट आपदा और आपदा प्रबंधन में सहायक होगी। इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि मानवीय गतिविधियों ने क्षेत्रीय जलवायु में इन परिवर्तनों को प्रभावित किया है, अतः मानवीय गतिविधियों के उचित प्रबंधन के साथ-साथ शमन उपायों को भी लागू करना महत्त्वपूर्ण है।

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