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ईरान परमाणु समझौते को पुनर्जीवित करने का प्रयास

संदर्भ

हाल ही में, ईरान परमाणु समझौते को पुनर्जीवित करने के लिये अमेरिका सहित विभिन्न पक्षकार ऑस्ट्रिया कि राजधानी वियना में वार्ता के लिये एकत्र हुए।

ईरान परमाणु समझौता

  • ईरान परमाणु समझौते को आधिकारिक रूप से ‘संयुक्त व्यापक कार्य योजना’ (JCPOA) के नाम से वियना में जुलाई, 2015में ईरान और P5 (पी5) तथा जर्मनी व यूरोपीय संघ के मध्य हस्ताक्षरित किया गया था। P5 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के पाँच स्थाई सदस्य- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन और रूस शामिल हैं। यह समझौता जनवरी, 2016 से लागू हुआ।
  • P5+1 को ‘E3+3’ के रूप में भी संदर्भित किया जाता है। इसमें यूरोपीय संघ के तीन देशों (E3 : फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी) के अलावा तीन गैर-यूरोपीय देश (अमेरिका, रूस और चीन) भी शामिल हैं।
  • इस समझौते के तहत संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ और अमेरिका द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों सेराहत के बदले ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने पर सहमत हुआ।
  • समझौते में ईरान द्वारा चलाए जाने वाले परमाणु संवर्द्धन संयंत्रों की संख्या के साथ-साथ उनको पुराने मॉडल तक सीमित कर दिया गया। ईरान ने भारी जल के रिएक्टर को भी रीकॉन्फ़िगर किया ताकि वह प्लूटोनियम का उत्पादन न कर सके। साथ ही, ईरान फोरदो स्थित अपने संवर्द्धन संयंत्र को एक अनुसंधान केंद्र में बदलने पर सहमत हो गया।
  • इसके अतिरिक्त, इसने संयुक्त राष्ट्र की परमाणु निगरानी संस्था ‘अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी’ (IAEA) को अधिक पहुँच प्रदान करने तथा अन्य साइटों के निरीक्षण की अनुमति प्रदान की।
  • इसके बदले में वैश्विक शक्तियों ने उन आर्थिक प्रतिबंधों को हटा लिया जो ईरान को अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग और वैश्विक तेल व्यापार से रोकता था। साथ ही, ईरान को वाणिज्यिक विमान खरीदने तथा अन्य व्यापारिक सौदे की अनुमति प्रदान की गई और विदेशों में ईरान की संपत्ति को भी अनफ्रीज़ कर दिया गया।
  • समझौते के तहत ईरान के यूरेनियम संवर्द्धन और भंडार की मात्रा संबंधी प्रतिबंध समझौते के 15 वर्ष बाद वर्ष 2031 में समाप्त हो जाएगा।
  • वर्ष 2016 में आई.ए.ई.ए. ने यह स्वीकार कि ईरान ने परमाणु समझौते के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा किया है और ईरान पर अधिकांश प्रतिबंध हटा दिये गए। इस प्रकार, ईरान ने धीरे-धीरे वैश्विक बैंकिंग प्रणाली में प्रवेश किया और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की बिक्री शुरू की।

अमेरिका द्वारा ईरान पर प्रतिबंध

  • वर्ष 2018 में अमेरिका ने ईरान परमाणु समझौते से स्वयं को अलग करते हुए ‘अधिकतम दबाव’ बनाने के लिये ईरान पर आर्थिक एवं अन्य प्रतिबंधों सहित विभिन्न कार्रवाइयाँ की।
  • हालाँकि, ईरान ने अमेरिकी प्रतिबंधों को दरकिनार करते हुए परमाणु संवर्धन कार्यक्रम को इस आधार पर जारी रखा कि उसका यह कार्यक्रम सैन्य उद्देश्यों के बजाय नागरिक उद्देश्यों के लिये है।
  • जनवरी 2020 में ईरान के कमांडर जनरल कासिम सुलेमान पर ड्रोन हमले के बाद ईरान ने परमाणु समझौते के प्रतिबंधों का पालन न करने की घोषणा की।
  • इस समझौते के खतरे में पड़ने से ईरान भी परमाणु क्षमता को लेकर उत्तर कोरिया की तरह रुख कर सकता है, जिससे इस क्षेत्र के साथ-साथ वैश्विक रूप से बड़ी भू-राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है।

अमेरिका के निहितार्थ

  • वर्तमान रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण अमेरिका की ऊर्जा आपूर्ति प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई है, अत: अमेरिका इस समझौते को पुनर्जीवित करके ईरान पर लगे प्रतिबंधों में ढील देकर अपनी ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहता है।
  • अमेरिका, मध्य एशिया में सऊदी अरब तथा ईरान के साथ अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करते हुए शक्ति संतुलन बनाए रखना चाहता है।

भारत पर प्रभाव

  • अमेरिका के काट्सा प्रतिबंधों के कारण भारत ने ईरान से कच्चे तेल के आयात को बंद कर दिया था। यदि वर्तमान में ईरान पर लगे प्रतिबंधों में ढील दी जाती है तो यह भारत कि ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने में सहायक होगा।
  • समझौते को पुनर्जीवित करने और ईरान पर प्रतिबंधों में ढील आने से भारत वहाँ स्थित चाबहार व बंदर अब्बास जैसी बंदरगाह परियोजनाओं में निवेश के माध्यम से अपनी उपस्थिति में वृद्धि करेगा। यह चीन द्वारा पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह के विकास का प्रत्युत्तर होगा।
  • पूर्व में अफगानिस्तान, ईरान और भारत के बीच अंतर्राष्ट्रीय परिवहन व पारगमन गलियारे की स्थापना हेतु त्रिपक्षीय समझौता भी एक अन्य मील का पत्थर था। यह परिवहन गलियारा ईरान के साथ-साथ अन्य मध्य एशियाई गणराज्यों के साथ भारत की कनेक्टिविटी में सुधार करेगा।

निष्कर्ष

ईरान पर लगे प्रतिबंधों ने वैश्विक रूप से तेल कि आपूर्ति को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है। यदि नए समझौते के तहत इन प्रतिबंधों में ढील दी जाती है तो यह न केवल ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करेगा बल्कि मध्य-एशिया क्षेत्र में स्थिरता को भी बढ़ावा देगा।

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