(प्रारंभिक परीक्षा: सामान्य विज्ञान) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 व 3: सरकारी नीतियों एवं विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी- विकास व अनुप्रयोग) |
संदर्भ
- भारत में मृतकों के अंगदान की दर वैश्विक स्तर पर न्यूनतम है जो देश के गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट को उजागर करती है। यद्यपि सड़क दुर्घटनाओं में प्रतिवर्ष लगभग 1,60,000 मौतें होती हैं किंतु मृतक अंगदान की संख्या मात्र 1,000 से 1,200 के बीच सीमित है।
- विशेषज्ञों ने इस अंतर के लिए ब्रेन डेड प्रमाणन में देरी एवं विफलता जैसी मूक समस्या की ओर इंगित किया है। इस देरी एवं प्रक्रियात्मक अंतराल के कारण संभावित अंगदान के अधिकांश अवसर गहन चिकित्सा इकाइयों (ICU) में ही समाप्त हो जाते हैं।
ब्रेन डेड और प्रमाणन में अंतराल
- विशेषज्ञों ने बताया कि देश भर की ICU में होने वाली अधिकांश ब्रेन डेड की घटनाएँ ‘मूक मृत्यु’ बनकर रह जाती हैं। ‘मूक मृत्यु’ का अर्थ है कि इन मामलों को मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम, 1994 (THOTA) के तहत कानूनी रूप से मस्तिष्क मृत के रूप में प्रमाणित (Certified) नहीं किया जाता है।
- परिणामस्वरुप, ये सभी मामले मृतक अंगदान के संभावित अवसर से चूक जाते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि प्रमाणन प्रक्रिया में यह बड़ा अंतराल (Gap) ही भारत में मृतक अंगदान की निराशाजनक रूप से कम दर का एक मुख्य कारण है।
भारत में मृतक अंगदान का ढाँचा व प्रक्रिया
भारत में मृतक अंगदान दो प्रमुख स्थितियों में किया जाता है जिसका विनियमन THOTA व राष्ट्रीय अंग एवं ऊतक प्रत्यारोपण संगठन (NOTTO) द्वारा किया जाता है।
दान किए जा सकने वाले अंग एवं ऊतक
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महत्वपूर्ण अंग (केवल ब्रेन डेड के बाद): ये अंग तभी निकाले जाते हैं जब व्यक्ति को ब्रेन डेड घोषित किया जाता है किंतु उसका हृदय व रक्त संचार कृत्रिम सहायता से कार्य कर रहा होता है।
- अंग : हृदय, फेफड़े, यकृत/लीवर, गुर्दे/किडनी, अग्न्याशय/पैंक्रियास, छोटी आंत
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ऊतक एवं अन्य भाग (ब्रेन डेड या हृदय मृत्यु के बाद): इन्हें ब्रेन डेड या हृदय के धड़कने बंद होने के 6 से 24 घंटे के भीतर दान किया जा सकता है।
- ऊतक : कॉर्निया/आँखें, त्वचा, हड्डी, हृदय वाल्व, नसें एवं कण्डरा, रक्त वाहिकाएँ
मृत्यु उपरांत अंगदान की प्रक्रिया (ब्रेन डेड डोनर)
मृतक अंगदान की प्रक्रिया गहन चिकित्सा इकाई (ICU) में शुरू होती है:
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चरण 1: ब्रेन डेड सर्टिफिकेशन: चार डॉक्टरों की अनुमोदित टीम द्वारा कानूनी घोषणा (दो बार) की जाती है।
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चरण 2: परिवार की सहमति: पुष्टि के बाद अंगदान समन्वयक परिवार से सहमति प्राप्त करते हैं, जो भारत में कानूनी रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण है, भले ही मृतक ने डोनर कार्ड पर हस्ताक्षर किए हों।
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चरण 3: अंगों का मिलान (Matching): अंगों की जानकारी NOTTO या राज्य स्तरीय संगठनों (ROTTO/SOTTO) को भेजी जाती है। मिलान रक्त समूह, ऊतक के प्रकार, अंग की आवश्यकता की तात्कालिकता एवं प्रतीक्षा समय के आधार पर किया जाता है।
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चरण 4: अंग प्रत्यावर्तन (Retrieval): प्रशिक्षित सर्जन की टीम ऑपरेशन थिएटर में अंगों को सावधानीपूर्वक निकालती है। अंग निकालने के बाद शरीर में कोई विरूपता नहीं आती है।
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चरण 5: प्रत्यारोपण (Transplantation): अंगों को एक विशेष घोल में रखकर कम से कम समय में प्राप्तकर्ता तक पहुँचाया जाता है (हृदय व फेफड़ों के लिए 4 से 8 घंटे)।
मृतक अंदान को बाधित करने वाली प्रमुख चुनौतियाँ
भारत में मृतक अंगदान की विफलता केवल प्रमाणन की समस्या तक सीमित नहीं है, बल्कि यह चुनौतियों के एक व्यापक जाल से उलझी हुई है:
1. संस्थागत एवं प्रशिक्षण संबंधी कमियाँ
- प्रशिक्षण का अभाव : न्यूरोलॉजिस्ट एवं आई.सी.यू. स्टॉफ सहित डॉक्टरों को भी ब्रेन डेड सर्टिफिकेशन का औपचारिक प्रशिक्षण कम मिलता है। केवल 10% चिकित्सकों ने बताया कि वे नियमित रूप से अपने रेजिडेंट्स को इस प्रक्रिया का प्रशिक्षण देते हैं। यह व्यावहारिक शिक्षा में कमी को दर्शाता है।
- बुनियादी ढाँचे की कमी : छोटे एवं मध्यम अस्पतालों में अंगों को सुरक्षित रखने, समन्वय करने और प्रत्यारोपण के लिए भेजने के उद्देश्य से आवश्यक आई.सी.यू. सुविधाएँ, उपकरण व सबसे महत्वपूर्ण ‘प्रशिक्षित अंगदान समन्वयक (Organ Transplant Coordinators)’ का अभाव है।
2. जागरूकता एवं सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ
- कम सार्वजनिक जागरूकता: आम जनता में ‘ब्रेन डेड’ की अवधारणा के बारे में बहुत कम जागरूकता है। लोग प्राय: इसे ‘कोमा’ या सामान्य मृत्यु समझते हैं।
- धार्मिक एवं सांस्कृतिक मिथक: अंगदान करने से अगले जन्म में शरीर अधूरा रहने जैसे अंधविश्वास भी परिवार की अनिच्छा का कारण बनता है। इसके अतिरिक्त दुःख की घड़ी में परिवार की सहमति प्राय: अंगदान के खिलाफ हो जाती है।
3. कानूनी एवं विनियामक चुनौतियाँ
- वाणिज्यिक व्यापार का खतरा: THOTA अधिनियम के बावजूद अवैध व्यापार एवं रैकेट की घटनाएँ सामने आती रहती हैं, जिससे लोगों का भरोसा डगमगाता है।
- क्षेत्रीय असमानता: अंगदान एवं प्रत्यारोपण के नियमों तथा सुविधाओं का कार्यान्वयन पूरे देश में एक समान नहीं है। तमिलनाडु व गुजरात जैसे राज्यों में यह दर अच्छी है, जबकि कई राज्यों में यह लगभग नगण्य है।
- अंगों का आवंटन: NOTTO द्वारा अंगों के आवंटन में पारदर्शिता व त्वरित समन्वय बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है।
भारत में अंगदान से संबंधित प्रमुख कानून एवं अधिनियम
- भारत में अंगदान के लिए केंद्रीय कानूनी ढाँचा मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम, 1994 (THOTA) और राष्ट्रीय अंग एवं ऊतक प्रत्यारोपण संगठन (NOTTO) द्वारा विनियमित है।
- THOTA का मुख्य उद्देश्य मानव अंगों के व्यावसायिक खरीद-बिक्री पर पूरी तरह रोक लगाना है, जो इसे एक दंडनीय अपराध बनाता है। यह अधिनियम चिकित्सीय उद्देश्यों के लिए अंगों को निकालने एवं भंडारण की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है और सबसे महत्वपूर्ण रूप से ब्रेन डेड (Brain Death) को कानूनी रूप से परिभाषित करता है जिससे मृतक अंगदान संभव हो पाता है।
- मानव अंग प्रत्यारोपण नियम, 1995 इस अधिनियम के विस्तृत प्रक्रियात्मक दिशानिर्देश प्रदान करते हैं। वर्ष 2011 के संशोधन में ऊतकों (Tissues) को भी इसके दायरे में लाया गया और कड़े दंड का प्रावधान किया गया।
- हालिया संशोधनों (2014 के बाद) ने NOTTO को राष्ट्रीय समन्वय एजेंसी बनाया और 2023 में अधिवास (Domicile) की आवश्यकता को समाप्त करके अंगदान पंजीकरण को पूरे देश के लिए सरल बना दिया।
आगे की राह : प्रक्रियाओं का सरलीकरण और प्रशिक्षण पर जोर
- भारत में मृतक अंगदान की दर में वांछित वृद्धि के लिए ब्रेन डेड सर्टिफिकेशन प्रोटोकॉल को मजबूत करने की तत्काल आवश्यकता है।
- प्रशिक्षण कार्यक्रमों को अनिवार्य करना :
- डॉक्टरों के लिए मेडिकल कॉलेज स्तर से ही ब्रेन डेड प्रमाणन प्रशिक्षण कार्यक्रमों को अनिवार्य किया जाना चाहिए।
- अनुभवी गहन चिकित्सा विशेषज्ञों के लिए नियमित प्रशिक्षणों एवं कार्यशालाओं का आयोजन करना चाहिए।
- एक समान प्रोटोकॉल का विकास :
- ब्रेन डेड प्रमाणन के लिए एक समान राष्ट्रीय प्रोटोकॉल की तत्काल आवश्यकता है जिसे देश के सभी अस्पतालों में बिना किसी अस्पष्टता के लागू किया जा सके।
- प्रक्रियागत हरित गलियारे:
- जिस प्रकार अंगों के परिवहन के लिए ‘ग्रीन कॉरिडोर्स’ होते हैं, वैसे ही अस्पतालों में भी प्रक्रियाओं को सरल बनाने और प्रमाणन को त्वरित करने के लिए प्रक्रियागत ‘हरित गलियारों’ की आवश्यकता है।
- यह सुनिश्चित करेगा कि प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की कमी या प्रशासनिक बाधाएँ संभावित अंगदान को प्रभावित न करें।
निष्कर्ष
भारत में अंगदान के भविष्य के लिए यह समझना होगा कि समस्या केवल डोनर कार्ड भरने या सामाजिक जागरूकता बढ़ाने तक सीमित नहीं है। इसका एक महत्वपूर्ण कारक प्रशासनिक एवं नैदानिक प्रक्रियाओं में निहित है, विशेषकर ब्रेन डेड सर्टिफिकेशन में। जब तक देश भर की ICU में होने वाली ‘मूक मृत्यु’ को कानूनी रूप से प्रमाणित मृतक अंगदान के अवसर में नहीं बदला जाता है तब तक भारत लाखों जरूरतमंद लोगों को जीवनदान देने की क्षमता से चूकता रहेगा। THOTA अधिनियम के तहत कानूनी ढाँचा मौजूद है किंतु इसकी प्रभावी कार्यान्वयन में कमी ही सबसे बड़ी बाधा है। प्रशिक्षण, प्रोटोकॉल एवं अस्पताल-स्तरीय बुनियादी ढांचे को मजबूत करके ही भारत अंगदान के वैश्विक मानचित्र पर एक सम्मानजनक स्थान हासिल कर सकता है और प्रतीक्षारत लोगों की आशाओं को पूरा कर सकता है।