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शहरी प्रशासन में लैंगिक असमानता: चुनौतियाँ एवं समाधान

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: शासन व्यवस्था, संविधान, शासन प्रणाली, सामाजिक न्याय तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंध, सरकारी नीतियों व विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए हस्तक्षेप तथा उनके अभिकल्पन एवं कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)

संदर्भ 

भारत एक अभूतपूर्व शहरी परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। वर्ष 2050 तक देश के 80 करोड़ से अधिक लोग शहरों में निवास करेंगे। ऐसे में इस परिवर्तन में लैंगिक समानता एक महत्वपूर्ण आधार है जो न केवल सामाजिक न्याय के लिए, बल्कि समावेशी एवं टिकाऊ शहरी विकास के लिए भी आवश्यक है। ऐसे में शहरी प्रशासन में लैंगिक असमानता एक बड़ी चुनौती है।

शासन/प्रशासन में लैंगिक समानता 

  • विगत तीन दशकों में भारत ने लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए प्रगतिशील संवैधानिक सुधार किए हैं। 73वें एवं 74वें संवैधानिक संशोधनों ने पंचायती राज संस्थानों (PRIs) और शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण अनिवार्य किया है, जिसे 17 राज्यों एवं एक केंद्र शासित प्रदेश ने बढ़ाकर 50% कर दिया है। 
  • वर्तमान में स्थानीय निर्वाचित प्रतिनिधियों में महिलाओं की हिस्सेदारी 46% से अधिक है और महिलाएँ मेयर व पार्षद के रूप में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। फिर भी, इन निर्वाचित प्रतिनिधियों के निर्णयों को लागू करने वाली नौकरशाही अब भी पुरुष-प्रधान बनी हुई है। 
  • यह असंतुलन भारत के शहरों को समावेशी और सभी नागरिकों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील बनाने में एक बड़ी बाधा है।

शहरी प्रशासन में लैंगिक असमानता की प्रमुख चुनौतियाँ 

  • नौकरशाही में महिलाओं की निम्न भागीदारी : शहरी प्रशासनिक ढाँचे में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है। उदाहरण के लिए, भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) में महिलाओं की हिस्सेदारी मात्र 20% (इंडियास्पेंड, 2022) और शहरी नियोजन, नगरपालिका इंजीनियरिंग एवं परिवहन प्राधिकरणों में यह और भी कम है।
    • पुलिस बल में केवल 11.7% महिलाएँ हैं (पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो, 2023), जोकि प्राय: डेस्क-आधारित भूमिकाओं तक सीमित रहती हैं।
  • पुरुष-प्रधान नीति निर्माण : शहरी नियोजन में मेगा-प्रोजेक्ट्स (जैसे- हाईवे, मेट्रो) को प्राथमिकता दी जाती है जबकि महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताएँ, जैसे- सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन, पर्याप्त रोशनी वाले सार्वजनिक स्थल आदि पर कम ध्यान दिया जाता है।
    • सेफ्टीपिन के 2019 के ऑडिट के अनुसार, 50 शहरों में 60% से अधिक सार्वजनिक स्थान अपर्याप्त रोशनी वाले थे, जो महिलाओं की सुरक्षा के लिए खतरा है।
  • लैंगिक-संवेदनशील दृष्टिकोण की कमी : परिवहन एवं विकास नीति एवं सुरक्षा संस्थान के एक अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली और मुंबई में 84% महिलाएं सार्वजनिक या साझा परिवहन का उपयोग करती हैं फिर भी, नीतियाँ उनकी गतिशीलता एवं सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं देती हैं।
    • पुलिस एवं प्रशासन में महिलाओं की निम्न उपस्थिति के कारण सामुदायिक सुरक्षा पहलें महिलाओं की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील नहीं होती हैं।
  • लैंगिक-उत्तरदायी बजट (GRB) का कमजोर कार्यान्वयन : जी.आर.बी. लैंगिक विचारों को सार्वजनिक वित्त में एकीकृत करता है जिसका उपयोग, विशेषकर छोटे शहरों में, सीमित व प्रतीकात्मक है।
    • कमजोर निगरानी एवं सीमित संस्थागत क्षमता के कारण जी.आर.बी. प्रभावी नहीं हो पाता है जिससे पैदल यात्री सुरक्षा एवं बाल देखभाल जैसे मुद्दे उपेक्षित रहते हैं।
  • संरचनात्मक बाधाएँ : प्रशासनिक एवं तकनीकी भूमिकाओं में भर्ती, प्रतिधारण व पदोन्नति में लैंगिक भेदभाव की समस्या है।
    • महिलाओं के लिए नियोजन एवं इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में प्रवेश में बाधाएँ हैं, जैसे- प्रोत्साहन व प्रशिक्षण का अपर्याप्त होना।

आगे की राह 

लैंगिक-संवेदनशील नीति एवं नियोजन

  • सार्वजनिक परिवहन में महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए बस स्टॉप जैसे स्थानों पर सी.सी.टी.वी. लगाए जाएँ।
  • सभी सार्वजनिक स्थानों पर 100% रोशनी कवरेज सुनिश्चित की जाए ताकि महिलाओं की सुरक्षा में वृद्धि हो।
  • प्रत्येक शहरी परियोजना, जैसे- मेट्रो या स्मार्ट सिटी के लिए लैंगिक प्रभाव आकलन (GIA) अनिवार्य किया जाए।
  • पुलिस बल में महिलाओं की हिस्सेदारी वर्ष 2027 तक 20% और 2032 तक 30% तक बढ़ाई जाए। साथ ही, उन्हें सामुदायिक पुलिसिंग में सक्रिय भूमिकाएँ प्रदान की जाएँ।

लैंगिक-उत्तरदायी बजट (GRB) का सशक्तिकरण

  • सभी शहरी स्थानीय निकायों के बजट का 5% लैंगिक-विशिष्ट कार्यक्रमों, जैसे- सुरक्षा व स्वास्थ्य के लिए आरक्षित किया जाए।
  • जी.आर.बी. व्यय की निगरानी के लिए ब्लॉकचेन-आधारित डिजिटल डैशबोर्ड एवं नागरिक फीडबैक पोर्टल विकसित किए जाएँ।
  • परिणाम-आधारित मूल्यांकन के लिए त्रैमासिक लैंगिक ऑडिट एवं प्रभाव मापन की व्यवस्था की जाए।

सामुदायिक सशक्तिकरण एवं जागरूकता

  • शहरी नीतियों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अधिक-से-अधिक टाउन हॉल मीटिंग और डिजिटल परामर्श मंच स्थापित किए जाएँ।
  • लैंगिक समानता एवं सुरक्षित शहर संबंधी जागरूकता के लिए सोशल मीडिया, रेडियो एवं सामुदायिक थिएटर अभियान चलाए जाएँ।
  • शहरी स्वयं सहायता समूहों (SHGs) को नियोजन एवं बजट प्रक्रियाओं में शामिल किया जाए और उन्हें वित्तीय प्रबंधन प्रशिक्षण प्रदान किया जाए।
  • स्कूलों व कॉलेजों में लैंगिक-संवेदनशील शहरीकरण संबंधी पाठ्यक्रम शुरू किए जाएँ।

संरचनात्मक बाधाओं का उन्मूलन

  • शहरी नियोजन, इंजीनियरिंग, और डेटा विश्लेषण में महिलाओं के लिए मुफ्त डिप्लोमा और डिग्री प्रोग्राम शुरू किए जाएँ।
  • तकनीकी भूमिकाओं में प्रवेश के लिए स्टार्टअप अनुदान, वजीफे एवं कर छूट जैसे वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान किए जाएँ।
  • शहरी प्रशासनिक संस्थानों में लैंगिक समानता सूचकांक लागू किया जाए।

नीतिगत एवं कानूनी सुधार

  • 73वें व 74वें संशोधनों का विस्तार करके नगर आयुक्तों व योजनाकारों जैसे पदों में 50% महिला आरक्षण लागू किया जाए।
  • लैंगिक समानता अधिनियम बनाया जाए, जिसमें अनिवार्य लैंगिक ऑडिट एवं गैर-अनुपालन पर दंड का प्रावधान हों।
  • समावेशी शहरों के निर्माण के लिए नौकरशाही में महिलाओं की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक कोटा से आगे बढ़ना होगा। इसके लिए प्रशासनिक और तकनीकी भूमिकाओं में भर्ती, प्रतिधारण और पदोन्नति में व्यवस्थित सुधार की आवश्यकता है।

मौजूदा योजनाओं का लैंगिक एकीकरण

  • स्मार्ट सिटी मिशन 2.0 में महिला-विशिष्ट शौचालय और सुरक्षित पथ जैसे लैंगिक डिज़ाइन अनिवार्य किए जाएँ।
  • अमृत मिशन में पैदल यात्री सुरक्षा और रोशनी परियोजनाएँ शुरू की जाएँ।

क्षमता निर्माण एवं प्रशिक्षण

  • राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (NULM) में शहरी नियोजन एवं तकनीकी क्षेत्रों में महिलाओं के लिए कौशल प्रशिक्षण शुरू किया जाए।
  • केरल के कुदुंबश्री मॉडल का राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार किया जाए, जिसमें शहरी एस.एच.जी. को शासन में शामिल किया जाए।
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