(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण व क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन) |
संदर्भ
जलवायु परिवर्तन के दौर में दुनिया भर में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए नए उपाय अपनाए जा रहे हैं। इन्हीं में से एक कार्बन बाज़ार (Carbon Market) भी है जहाँ प्रदूषण घटाने को आर्थिक प्रोत्साहन से जोड़ा जाता है। भारत भी अपने कार्बन बाज़ार के निर्माण की दिशा में तेज़ी से बढ़ रहा है किंतु वैश्विक अनुभव बताते हैं कि यदि ज़रूरी सुरक्षा उपाय नहीं अपनाए गए, तो यह पहल किसानों व ग्रामीण समुदायों के लिए शोषण का कारण बन सकती है।
क्या है कार्बन बाज़ार ?
कार्बन बाज़ार एक ऐसा तंत्र है जहाँ कंपनियाँ या देश ‘कार्बन क्रेडिट्स’ का व्यापार करते हैं। जिन संस्थानों ने अपने उत्सर्जन को कम किया है, वे ‘क्रेडिट्स’ बेच सकती हैं, जबकि जो अधिक उत्सर्जन करते हैं, वे इन क्रेडिट्स को खरीदकर अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं। इस प्रकार यह बाज़ार जलवायु-अनुकूल व्यवहार को बढ़ावा देने का कार्य करता है।
कार्बन क्रेडिट से तात्पर्य
एक कार्बन क्रेडिट (Carbon Credit) का अर्थ है- एक टन कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) या उसके समतुल्य गैसों के उत्सर्जन में की गई प्रमाणित कमी।
- ये क्रेडिट्स नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं, वनीकरण, कृषि सुधार या बायोचार जैसी तकनीकों से उत्पन्न होते हैं।
- कंपनियाँ इन्हें खरीदकर अपने कार्बन उत्सर्जन को ‘ऑफसेट’ करती हैं।
- इसका उद्देश्य यह है कि प्रदूषण घटाने वाले देशों या समुदायों को आर्थिक लाभ मिल सके।
भारत का कार्बन बाज़ार
- भारत ने हाल ही में कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना (CCTS) शुरू की है।
- इस योजना के तहत ऊर्जा-गहन क्षेत्रों के लिए उत्सर्जन मानक तय किए जा रहे हैं।
- एक राष्ट्रीय रजिस्ट्री एवं ट्रेडिंग प्लेटफ़ॉर्म भी विकसित किया जा रहा है।
- प्रारंभिक परियोजनाएँ, जैसे- बायोमास, कंप्रेस्ड बायोगैस, कम उत्सर्जन वाले धान की खेती आदि को शामिल किया गया है।
हालाँकि भारत में कृषि आधारित कार्बन परियोजनाएँ अभी बहुत सीमित हैं- जैसे Verra प्लेटफ़ॉर्म पर दर्ज 64 भारतीय कृषि परियोजनाओं में से केवल 4 पंजीकृत हैं और किसी ने अभी तक क्रेडिट जारी नहीं किया है। इसका कारण किसानों की सीमित भागीदारी व प्रशिक्षण की कमी है।
चिंताएँ व संवेदनशीलता
- वैश्विक अनुभव बताते हैं कि बिना सुरक्षा उपायों के कार्बन परियोजनाएँ ‘आधुनिक बागान व्यवस्था’ जैसी बन सकती हैं, जहाँ लाभ कॉरपोरेट कंपनियाँ लेती हैं और समुदायों को नुकसान झेलना पड़ता है।
- केन्या का उदाहरण: उत्तरी केन्या रेंजलैंड्स कार्बन परियोजना (Northern Kenya Rangelands Carbon Project) में समुदाय की भूमि पर बिना सहमति के परियोजना लागू की गई, जिससे स्थानीय लोगों के अधिकार प्रभावित हुए।
- भारत में भी ऐसी आशंका है कि वनीकरण या कृषि आधारित परियोजनाएँ ग्राम्य चरागाहों या वन भूमि में अतिक्रमण कर सकती हैं जिससे किसानों व आदिवासी समुदायों की आजीविका प्रभावित होगी।
- दलित एवं छोटे किसानों को प्राय: इन योजनाओं से बाहर रखा जाता है जिससे सामाजिक असमानता अधिक बढ़ सकती है।
आवश्यक सुरक्षा उपाय
भारत को अपने कार्बन बाज़ार को न्यायसंगत एवं पारदर्शी बनाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे-
- भूमि अधिकारों की सुरक्षा: किसी भी परियोजना से पहले स्थानीय समुदाय की भूमि और संसाधनों पर उनके अधिकार सुनिश्चित किए जाएँ।
- स्वतंत्र सहमति (FPIC): सभी परियोजनाएँ ‘स्वतंत्र, पूर्व एवं सूचित सहमति’ (Free, Prior and Informed Consent) के सिद्धांत पर आधारित हों।
- निष्पक्ष लाभ वितरण: कार्बन क्रेडिट से मिलने वाला राजस्व समुदायों तक न्यायपूर्ण तरीके से पहुँचे।
- पारदर्शिता व जवाबदेही: डेवलपर कंपनियों को अपने लाभ बाँटने की प्रक्रिया सार्वजनिक करनी चाहिए।
- लचीला लेकिन संतुलित नियमन: अत्यधिक नौकरशाही से बचते हुए ऐसा कानूनी ढाँचा बने जो विश्वास और भागीदारी बढ़ाए।
निष्कर्ष
भारत का कार्बन बाज़ार जलवायु परिवर्तन के समाधान में एक अहम भूमिका निभा सकता है, बशर्ते इसे न्याय, पारदर्शिता और सामुदायिक भागीदारी के सिद्धांतों पर खड़ा किया जाए।
यदि भूमि अधिकारों और लाभ वितरण की सुरक्षा नहीं की गई, तो यह हरित विकास का नहीं बल्कि “हरित उपनिवेशवाद” का नया रूप बन सकता है। भारत को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि उसका कार्बन बाज़ार केवल जलवायु नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और सतत विकास दोनों की दिशा में आगे बढ़े।