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वनों के प्रशासन से संबंधित मुद्दे

(प्रारंभिक परीक्षा: राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 व 3: केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इनका कार्य-निष्पादन; इन वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय; संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

संदर्भ 

छत्तीसगढ़ वन विभाग ने एक पत्र जारी कर स्वयं को वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act: FRA), 2006 के तहत सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (Community Forest Resource Rights: CFRR) के कार्यान्वयन के लिए नोडल एजेंसी घोषित किया है। 

भारत में वन प्रबंधन 

वन विभागों की कार्ययोजना

  • ऐतिहासिक रूप से भारत में सरकारी नियंत्रण वाले वनों (वन्यजीव अभयारण्यों या राष्ट्रीय उद्यानों को छोड़कर) का प्रबंधन वन विभागों की कार्य योजनाओं के माध्यम से किया जाता रहा है। 
  • माधव गाडगिल जैसे पारिस्थितिकीविदों ने इस दृष्टिकोण पर प्रश्न उठाए क्योंकि इन  कार्य योजनाओं में प्राकृतिक वनों की कटाई एवं उनकी जगह एकल-प्रजाति के वृक्षारोपण शामिल थे। 

वन अधिकार अधिनियम का क्रियान्वयन 

  • वन अधिकार अधिनियम (FRA) वनों के ‘अस्तित्व एवं स्थायित्व’ में स्थानीय समुदायों की अभिन्न भूमिका को मान्यता देता है। 
  • इसके तहत स्थानीय आवश्यकताओं को प्राथमिकता देने और वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए ग्राम सभाओं द्वारा वन संरक्षण प्रबंधन योजनाएँ विकसित की जाती हैं। 
    • हालाँकि, भारत में 1,000 से भी कम ग्राम सभाओं ने अपनी वन संरक्षण प्रबंधन योजनाएँ तैयार की हैं। 
    • कुछ हद तक वन विभागों द्वारा ग्राम सभाओं की वैधता को मान्यता देने और उनका समर्थन करने से इनकार करने के कारण भी उनका कार्यान्वयन बाधित है। 
  • जनजातीय कार्य मंत्रालय तथा पर्यावरण मंत्रालय ने वर्ष 2024 में एक संयुक्त पत्र में वन अधिकार अधिनियम प्रबंधन योजनाओं को राष्ट्रीय कार्य योजना संहिता के अनुरूप होने तथा उनकी तैयारी में वन अधिकारियों की भागीदारी का भी सुझाव दिया। यह वन अधिकार अधिनियम के मूल सिद्धांतों एवं भावना का उल्लंघन करता है।

क्या है सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (CFRR)

  • CFRR वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत एक परिवर्तनकारी प्रावधान है जो ग्राम सभाओं को अपने पारंपरिक वनों के प्रबंधन के अधिकार को मान्यता देता है। 
  • यह औपनिवेशिक काल के दौरान वन समेकन के प्रतिकूल प्रभावों को दूर करने का प्रयास करता है जिसने स्थानीय समुदायों को बेदखल कर दिया और उनके पारंपरिक प्रबंधन संस्थानों की जगह केंद्रीकृत राज्य नियंत्रण स्थापित कर दिया था।

वन प्रशासन से संबंधित मुद्दे

ग्राम सभाओं की उपेक्षा 

  • नए नियम वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के तहत ग्राम सभाओं की सहमति के बिना विकास के लिए वन भूमि के उपयोग की अनुमति दे सकते हैं।
  • यह स्थानीय स्वशासन एवं आदिवासी अधिकारों को कमजोर करता है।

निजी वनरोपण मॉडल

  • नए प्रावधान निजी विकासकर्ताओं को मूल वन क्षेत्रों के बाहर संभवतः प्रतिपूरक वनरोपण करने की अनुमति देते हैं।
  • इससे हरित रेगिस्तान बनाने और पारिस्थितिक विविधता की अनदेखी करने के जोखिम में वृद्धि होती है।

 ‘वन’ की परिभाषा का कमजोर होना

  • सर्वोच्च न्यायालय ने टी.एन. गोदावर्मन मामले (1996) में ‘वन’ की परिभाषा का विस्तार किया।
  • हाल के प्रस्ताव इस परिभाषा को सीमित करने का प्रयास करते हैं, जिसमें पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण कई अलिखित वनों को शामिल नहीं किया गया है।

कानूनी एवं संवैधानिक चिंताएँ

  • यह पेसा अधिनियम, 1996 और वन अधिकार अधिनियम, 2006 का उल्लंघन करता है जो वन संसाधनों पर आदिवासियों की सहमति एवं सामुदायिक नियंत्रण को अनिवार्य करते हैं।
  • इसके अतिरिक्त यह वन समुदायों के जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) और अनुच्छेद 48A (पर्यावरण संरक्षण) को कमज़ोर करता है।

प्रभाव 

  • वनों की आसान कटाई के कारण पर्यावरणीय क्षरण
  • अस्तित्व एवं सांस्कृतिक पहचान के लिए वनों पर निर्भर आदिवासी समुदायों का हाशिए पर जाना
  • सतत विकास लक्ष्यों (SDG) और भारत की जलवायु प्रतिबद्धताओं के लिए ख़तरा

आगे की राह

  • सभी वन परिवर्तन परियोजनाओं में ग्राम सभाओं की पूर्व सूचित सहमति सुनिश्चित करने के साथ ही समुदाय-आधारित वन प्रशासन को मज़बूती प्रदान करना।
  • संशोधित नियमों को संवैधानिक सुरक्षा और पर्यावरणीय न्याय के साथ संरेखित करना।
  • भारत के वन प्रशासन को केवल आर्थिक विकास पर ही केंद्रित नहीं होना चाहिए, बल्कि पारिस्थितिक समग्रता एवं सामाजिक न्याय को भी बनाए रखना चाहिए।
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