| (प्रारंभिक परीक्षा: विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी) |
संदर्भ
हाल ही में IIT बॉम्बे, उस्मानिया मेडिकल कॉलेज और क्लैरिटी बायो सिस्टम्स के शोधकर्ताओं ने एक नई स्टडी की है, जो बताती है कि रक्त में मौजूद सूक्ष्म अणु (Metabolites) डायबिटीज़ और उससे जुड़ी बीमारियों (खासकर किडनी रोग) का खतरा बहुत पहले बता सकते हैं।
बायोकेमिकल मार्कर के बारे में
- बायोकेमिकल मार्कर शरीर में होने वाली रासायनिक प्रक्रियाओं के दौरान बनने वाले छोटे-छोटे अणु होते हैं।
- इनमें शुगर, अमीनो एसिड, फैट्स (लिपिड) और अन्य यौगिक शामिल हैं, जो शरीर के अंगों की स्थिति को दर्शाते हैं।
- मेटाबोलोमिक प्रोफाइलिंग नामक तकनीक से इन अणुओं का बड़े पैमाने पर विश्लेषण किया जा सकता है।
- इसमें वैज्ञानिक लिक्विड क्रोमैटोग्राफी और मास स्पेक्ट्रोमेट्री जैसी आधुनिक विधियों का उपयोग करते हैं, जिससे एक छोटे से खून के सैंपल में सैकड़ों अणुओं की पहचान की जा सकती है।
हालिया अध्ययन के बारे में
- यह शोध जर्नल ऑफ़ प्रोटेओमे रिसर्च में प्रकाशित हुआ है।
- इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने ड्राइड ब्लड स्पॉट्स (Dried Blood Spots) यानी रक्त के सूखे नमूने का इस्तेमाल किया।
- इसमें 52 लोगों के सैंपल शामिल थे, स्वस्थ व्यक्ति, डायबिटिक मरीज और डायबिटिक किडनी डिजीज (DKD) वाले मरीज।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष
- वैज्ञानिकों ने 26 ऐसे मेटाबोलाइट्स की पहचान की जो स्वस्थ लोगों और डायबिटिक मरीजों में काफी भिन्न थे।
- इनमें ग्लूकोज़ और कोलेस्ट्रॉल जैसे ज्ञात यौगिकों के अलावा वैलेरोबीटेन, रिबोथाइमिडीन और फ्रक्टोसिल-पायरोग्लूटामेट जैसे कम ज्ञात यौगिक भी शामिल थे।
- जिन मरीजों को किडनी की जटिलताएँ थीं, उनमें 7 मेटाबोलाइट्स (जैसे अरबिटोल, मयो-इनॉसिटोल, और 2PY) का स्तर क्रमशः बढ़ता पाया गया, यानी स्वस्थ से डायबिटिक और फिर DKD तक।
भारत के लिए इसका महत्व
- भारत दुनिया में गैर-संचारी रोगों (Non-Communicable Diseases : NCDs) के सबसे बड़े बोझ वाले देशों में से एक है।
- ICMR सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 10 करोड़ लोग डायबिटीज़ (मधुमेह) से पीड़ित हैं और 13.6 करोड़ लोग प्री-डायबिटिक (पूर्व-मधुमेह) अवस्था में हैं।
- साथ ही मोटापा, उच्च रक्तचाप और अन्य मेटाबॉलिक विकार भी तेजी से बढ़ रहे हैं।
- चिंता की बात यह है कि 80% से अधिक NCD मरीजों का निदान समय पर नहीं होता।
- ऐसे में यदि मेटाबोलोमिक प्रोफाइलिंग जैसी तकनीकें अपनाई जाएँ, तो बीमारी का खतरा लक्षण दिखने से पहले ही पहचाना जा सकता है।
- इससे समय रहते उपचार शुरू किया जा सकता है और किडनी फेल्योर, हृदय रोग, और नसों की क्षति जैसी जटिलताओं को रोका जा सकता है।
- इसके अतिरिक्त, यह तकनीक ड्राइड ब्लड स्पॉट्स पर आधारित है, जिसे ग्रामीण और दूरदराज़ क्षेत्रों में भी आसानी से अपनाया जा सकता है।
व्यक्तिगत उपचार की दिशा में कदम
- इस शोध की मदद से मरीजों को उनके मेटाबोलिक प्रोफाइल के आधार पर अलग-अलग समूहों में बाँटा जा सकता है।
- इससे डॉक्टर प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक स्थिति, जोखिम स्तर और जीवनशैली को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत इलाज दे सकेंगे।
इस पद्धति की सीमाएँ
- अध्ययन का नमूना आकार छोटा था, इसलिए इसे बड़े और विविध समूहों पर दोहराने की आवश्यकता है।
- मास स्पेक्ट्रोमेट्री जैसी तकनीकें महंगी हैं और आमतौर पर केवल शोध प्रयोगशालाओं में उपलब्ध होती हैं।
- प्रयोगशाला मानकों का मानकीकरण, नियामक स्वीकृतियाँ और सस्ती जांच तकनीक विकसित करना अभी चुनौती है।
निष्कर्ष
यह अध्ययन भारत में डायबिटीज़ और उसकी जटिलताओं की शुरुआती पहचान के क्षेत्र में एक बड़ी प्रगति है। यदि इस तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाया जाए तो भारत “इलाज-के-बाद-देखभाल” से “बीमारी-से-पहले-सावधानी” की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठा सकता है। भविष्य में यह अध्ययन डायबिटीज़ से लड़ाई में एक सस्ती, आसान और सटीक जांच प्रणाली का आधार बन सकता है।