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ऋण बाज़ार : अवसंरचनात्मक सुधार की आवश्यकता

(प्रारंभिक परीक्षा : आर्थिक और सामाजिक विकास)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 3 : भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय)

पृष्ठभूमि

वित्तीय बाज़ार (Financial Market) आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ (Backbone Of Modern Economies) है। बॉन्ड, इक्विटी बाज़ार एवं बैंक, बचतकर्ताओं (Savers) और उधारकर्ताओं (Borrowers) के मध्य सेतु का कार्य करते हैं। इन बाज़ारों द्वारा किये गए कार्य अर्थव्यवस्था में तरलता (Liquidity/लिक्विडिटी) की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। वित्तीय बाज़ार संस्थाओं द्वारा जोखिम को कम करते हुए बचतकर्ताओं को उच्चतम प्रतिलाभ (Highest Return) देना होता है, अत: वे निवेश के नए साधन, उपकरण या माध्यम खोजते रहते हैं। यह जोखिम के साथ-साथ एक चुनौतीपूर्ण कार्य भी है। भारत में वित्तीय बाज़ार सुधार विशेषकर पूँजी बाज़ार (Capital Market) से सम्बंधित सुधार, अभी शुरुआती अवस्था (Initial Stage) में हैं।

चुनौतियाँ

  • बैंकों, कम्पनियों और वित्तीय संस्थाओं की विनियामकों द्वारा निरंतर निरीक्षण तथा निगरानी नहीं की जाती है।
  • भारत की वित्तीय प्रणाली में लम्बे समय से सरकार का राजकोषीय प्रभुत्त्व (Fiscal Dominance) बना हुआ है (विशेषकर सार्वजनिक वित्तीय संस्थाओं में जैसे, आर.बी.आई. और एल.आई.सी.) तथा वर्तमान वित्तीय और मौद्रिक अवसंरचना भी सरकार के राजकोषीय हितों के अधीन ही दिखाई पड़ती है।
  • पिछले कुछ महीनों से मौद्रिक नीति समिति (Monetary Policy Committee/MPC) द्वारा नीतिगत दरों (Policy Rates) में निरंतर कटौती करने या उन्हें स्थिर रखने के बावज़ूद लम्बी अवधि की ऋण दरें उच्च स्तर पर बनी हुई हैं।
  • वित्तीय विनियामक संस्थाओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक हस्तक्षेप या दबाव बना रहता है, जिससे वे स्वंतत्र रूप से कार्य नहीं कर पातीं हैं।
  • गैर निष्पादित परिसम्पत्तियों (NPA) को बैंकों के वित्तीय लेखे-जोखे (Financial Statements) से हटाने पर सरकार द्वारा इनकी क्षतिपूर्ति पुनः पूँजीकरण (Recapitalization) के माध्यम से की जाती है, जिससे सरकार के ऊपर अतिरिक्त ऋणभार पड़ता है और अंततः इसका दायित्व करदाताओं (Tax payers) पर ही पड़ता है।

सुधार हेतु सुझाव

  • सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) की प्राथमिक समस्या यह है कि इन्हें समिष्टि आर्थिक प्रबंधन (राजकोषीय घाटे की पूर्ति हेतु संसाधन जुटाने में) के एक उपकरण के रूप में प्रयोग किया गया है। इन बैंकों के प्राथमिक कार्यों को सार्वजनिक हित के आधार पर स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये। साथ ही, इनकी कार्य संस्कृति (Work Culture) को जन केंद्रित (people Centric) किया जाना चाहिये।
  • ऋण वितरण से सम्बंधित नीतियों में जोखिम कारकों (Risk Factors) का मूल्यांकन निर्धारित मानदंडों के अनुरूप किया जाना चाहिये।
  • सभी वित्तीय संस्थाओं तथा बैंकों से ऋण लेने वाले व्यक्ति और इकाइयों द्वारा एक निर्धारित समय-सीमा के अंतर्गत अपनी व्यक्तिगत तथा कम्पनी की आर्थिक स्थिति के बारे में प्रकटीकरण (Disclosure) अनिवार्य रूप से प्रस्तुत किये जाने चाहिये। (इस व्यवस्था हेतु स्टॉक एक्सचेंज के नियमों का अनुसरण किया जा सकता है)
  • सटीक आर्थिक स्थिति के प्रकटीकरण से व्यक्तियों (सिबिल/CIBIL द्वारा निर्धारित) तथा कम्पनियों (क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों/CRA द्वारा निर्धारित) की रेटिंग का वास्तविक समय में मूल्यांकन हो सकेगा, जिससे बड़े स्तर पर जोखिमों के कम होने की सम्भावना है।
  • सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण हेतु ठोस और व्यावहारिक प्रयास किये जाने चाहिये। क्योंकि अधिकांश संकटग्रस्त ऋण (Stressed Loans) सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में ही हैं।
  • आर.बी.आई. को सार्वजनिक ऋण प्रबंधन (Public Debt Management) की भूमिका से मुक्त होकर स्वंतत्र रूप से कार्य करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिये।
  • विनियामक संस्थाओं में प्रमुखों की नियुक्ति अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड तथा निष्पक्षता के आधार पर होनी चाहिये।

निष्कर्ष

वास्तविक रूप में फर्मों, कम्पनियों और उद्योगों की उत्पादकता तथा वृद्धि ही अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर (जी.डी.पी.) का मुख्य आधार है। इसलिये इन इकाइयों को उचित दर और शर्तों पर ऋण उपलब्ध करवाने हेतु वित्तीय बाज़ार में बुनियादी सुधार करना अत्यंत आवश्यक है।

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