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ग्रामीण महिलाओं की श्रम सहभागिता: समय की माँग

(प्रारम्भिक परीक्षा: आर्थिक और सामाजिक विकास- सतत विकास, गरीबी, समावेशन, जनसांख्यिकी, सामाजिक क्षेत्र में की गई पहल)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: उदारीकरण का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव, निवेश मॉडल)

चर्चा में क्यों?

कोविड-19 महामारी के दौर में लॉकडाउन के कारण ग्रामीण महिलाओं का कार्यशील जीवन तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उनकी श्रम सहभागिता नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई है।

कोविड-19 महामारी से पूर्व ग्रामीण महिलाओं की स्थिति

  • लॉकडाउन से पहले भी ग्रामीण महिलाएँ निरंतर रोज़गार संकट का सामना कर रही थीं। राष्ट्रीय श्रमबल सर्वेक्षण, 2017-18 के आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार ग्रामीण युवा महिलाओं का केवल एक-चौथाई भाग श्रमबल का हिस्सा है।
  • कर्नाटक के ग्रामीण क्षेत्र के ग़ैर सरकारी संगठन के आँकड़ों से पता चलता है कि मौसमी उतार-चढ़ाव के चलते ग्रामीण महिलाओं की श्रम सहभागिता की दर में भी परिवर्तन होता रहता है। हालाँकि, कटाई सीजन में लगभग सभी ग्रामीण महिलाओं को श्रमिकों की परिभाषा में शामिल कर लिया जाता है।
  • महिलाओं के लिये रोज़गार के अवसरों में कमी आने के कारण महिलाओं की श्रम सहभागिता में अत्यधिक कमी देखी गई है।
  • घरेलू महिलाओं के कार्य को पैसों में नहीं मापा जाता है, जिससे इस कार्य के मौद्रिक मूल्य को देश की जी.डी.पी. में भी शामिल नहीं जाता है। इससे देश की राष्ट्रीय आय में घरेलू महिलाओं की आर्थिक सहभागिता नहीं हो पाती है, जबकि घरेलू महिलाएँ बाहर कार्य करने वाली किसी महिला की अपेक्षा अधिक समय कार्य करती हैं।

ग्रामीण महिला के रोज़गार की ख़राब स्थिति का कारण

  • युवा और शिक्षित महिलाएँ कृषि से सम्बंधित कार्यों में संलग्न नहीं होना चाहती हैं, जिससे ग्रामीण महिलाओं के कार्यबल की संख्या में कमी आती है। इसके विपरीत, कम पढ़ी लिखी और वृद्ध महिलाएँ मैनुअल कार्य में अधिक शामिल होती हैं।
  • ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं की मज़दूरी तुलनात्मक रूप से पुरुषों से अधिक होती है। बढ़ते रोज़गार के स्रोतों के साथ ग़ैर कृषि कार्यों में कुछ अपवादों को छोड़कर मज़दूरी में असामनता की प्रवृति बढ़ती जा रही है।
  • महिलाओं के सभी प्रकार के कार्यों की आर्थिक गतिविधियों की गणना करने से पता चलता है कि घरेलू महिलाओं के कार्य दिवस (Working Day) की अवधि अधिक होती है, जैसे- खाना बनाना, सफाई, बच्चों एवं बड़ों की देखभाल आदि।

महामारी और लॉकडाउन का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव

  • कोरोना संक्रमण के खतरे से बचने के लिये किसानों द्वारा कृषि कार्यों में परिवार के लोगों से ही कार्य करवाने के चलन में वृद्धि हुई है, जिससे कृषि कार्यों में महिलाओं की सहभागिता सीमित हो गई है।
  • कृषि से संलग्न क्षेत्रों की आय पर भी नकारात्मक प्रभाव देखने को मिला है, जैसे-होटल आदि बंद होने से दूध की माँग में लगभग 25% तक की गिरावट हुई है।
  • मछली उद्योग में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका है लेकिन महामारी फैलने के डर से मछुआरों द्वारा मछली पकड़ने और उसके आगे की पूरी प्रक्रिया लगभग ठप्प हो चुकी है, जिससे महिलाओं के रोज़गार पर नकारात्मक असर देखने को मिला है। ध्यातव्य है कि मछली उद्योग में महिलाओं की हिस्सेदारी अधिक है।

महिलाओं के लिये ग़ैर कृषि क्षेत्र में रोज़गार का संकट

  • निर्माण कार्यों में ठहराव, ईट भट्टों पर रोक तथा स्थानीय फैक्ट्रियों में बंदी की स्थिति के चलते महिलाओं के लिये ग़ैर कृषि रोज़गार में अधिक गिरावट की स्थिति बनी हुई है।
  • हाल के वर्षों में सार्वजानिक कार्यों में आधे से अधिक श्रमिकों में महिलाओं का पंजीकरण किया गया है लेकिन राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत अप्रैल के अंत तक महिलाओं के लिये रोज़गार उपलब्धता की स्थिति संतोषजनक नहीं है।
  • 90% से अधिक आशा कार्यकर्ता महिलाएँ हैं, जोकि फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कर्मी के रूप में जानी जाती हैं लेकिन इनको अब तक श्रमिकों के रूप में पहचान प्रदान नहीं किया गया है।
  • लॉकडाउन में लगभग सभी क्षेत्रों में ठहराव के चलते परिवार के सभी सदस्य घर पर ही हैं, जिनकी देखभाल व अन्य कार्यों के कारण महिलाओं पर कार्य का अधिक दबाव हो गया है, जिससे महिलाओं के स्वास्थ्य और पोषण स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
  • लॉकडाउन के पश्चात दिहाड़ी महिला मज़दूरों के रोज़गार में 71% की गिरावट आई है, जबकि पुरुषों के लिये यह आँकड़ा 59% है। इससे स्पष्ट होता है कि महामारी के दौर में व्यापक स्तर पर महिलाएँ बेरोज़गार हुईं हैं।
  • महामारी के समय में महिलाओं के लिये नीति-निर्माण तथा अन्य कार्यक्रमों में पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है।

महिला रोज़गार की स्थिति में सुधार हेतु सुझाव

  • मनरेगा में विस्तार करते हुए महिला रोज़गार पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
  • महिलाओं के लिये कौशल आधारित उद्योगों में रोज़गार हेतु मध्यम और दीर्घकालिक योजनाओं पर विचार किया जाना चाहिये।
  • आशा कार्यकर्ताओं को श्रमिकों के तौर पर पहचान प्रदान करने के साथ ही उचित पारिश्रमिक प्रदान किया जाना चाहिये।
  • महिलाओं के घर से कार्यस्थल तक आवाजाही के लिये सुगम और सुरक्षित यातायात पर विशेष रूप से ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।
  • सरकार द्वारा स्कूल में दिये जाने वाले भोजन की गुणवत्ता तथा बच्चों की देखभाल जैसी योजनाओं के कार्यान्वयन में सुधार से महिलाओं के ऊपर कार्य के बोझ में कमी आएगी।
  • महिलाओं की श्रम सहभागिता में वृद्धि हेतु इनके सभी प्रकार के कार्यों को मौद्रिक मूल्य में मापकर आधिकारिक आँकड़ों में शामिल किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

  • यह समय की माँग है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण बदलाव के दौर में महिलाओं की समान भागीदार को सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
  • ग्रामीण महिलाओं की आर्थिक शक्ति एवं उनकी प्रभावशीलता में विस्तार हेतु पुरुष प्रधान समाज का नारी के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाना आवश्यक है।
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