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जलवायु परिवर्तन से जुड़ा पर्माफ्रॉस्ट का पेंच

(प्रारंभिक परीक्षा : भारत एवं विश्व का भूगोल : भारत एवं विश्व का प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक भूगोल; पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन संबंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन; आपदा और आपदा प्रबंधन)

संदर्भ

  • हाल के वर्षों में, विश्व में जलवायु परिवर्तन का चरम स्वरूप देखने को मिला, इसमें समुद्री जलस्तर में वृद्धि से लेकर भीषण गर्मी का प्रकोप तथा बाढ़ से लेकर भयंकर चक्रवात शामिल हैं।
  • पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना भी इसी का एक प्रभाव है। वर्ष 2019 में संयुक्त राष्ट्र ने इसे वैश्विक जलवायु संबंधी पाँच प्रमुख उभरती चिंताओं में से एक कहा था। ऐसे में, यह समझना आवश्यक हो जाता है कि पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना क्यों मायने रखता है तथा नीति-निर्माण के दृष्टिकोण से इसकी क्या महत्ता है

पर्माफ्रॉस्ट क्या है?

  • बर्फीले क्षेत्रों में पृथ्वी की सतह के नीचे जमी हुई ऐसी आधार भूमि को ‘पर्माफ्रॉस्टकहते हैं, जो लगातार कम से कम दो वर्षों तक जमी हुई अवस्था में रही हो। इसके कुछ भाग तो हज़ारों वर्ष पुराने होते हैं तथा इनकी गहराई कुछ मीटर से लेकर कुछ कि.मी. तक हो सकती है।
  • उत्तरी गोलार्द्ध का लगभग 25 प्रतिशत तथा पृथ्वी का लगभग 17 प्रतिशत भाग पर्माफ्रॉस्ट से आच्छादित है। यह मुख्यतः आर्कटिक क्षेत्र में पाया जाता है। विश्व के अन्य क्षेत्रों, जैसे– अलास्का का 80 प्रतिशत, कनाडा का 50 प्रतिशत तथा रूस का लगभग 60 प्रतिशत भू-भाग पर्माफ्रॉस्ट से आच्छादित है। वैश्विक स्तर पर ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों, जैसे– आल्प्स, हिमालय तथा एंडीज़ पर्वत पर भी यह पाया जाता है। 

पर्माफ्रॉस्ट की विशेषताएँ

  • ये पृथ्वी के लिये एक विशाल फ्रीज़र की भूमिका निभाते हैं। यहाँ मृत वनस्पतियों, पशु-पक्षियों, माइक्रोब्स तथा वायरस जैसे जैविक पदार्थ भारी मात्रा में जमी हुई अवस्था में उपस्थित हैं।
  • पर्माफ्रॉस्ट को पृथ्वी पर कार्बन और पारे का सबसे बड़ा भंडार भी माना जाता है। यहाँ अनुमानित 1600 अरब टन कार्बन जमा है, जो वर्तमान में वातावरण में विद्यमान गैसों का लगभग दोगुना है।
  • पर्माफ्रॉस्ट कई कारकों के प्रति संवेदनशील होते हैं। विशेषकर, जलवायु परिवर्तन तथा वैश्विक उष्मन का इन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। आर्कटिक पर्माफ्रॉस्ट के संदर्भ में तो यह बात विशेष रूप से लागू होती है क्योंकि आर्कटिक क्षेत्र वैश्विक औसत की तुलना में दो-तीन गुना अधिक गति से गर्म हो रहा है।
  • 'जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल’ (IPCC) के अनुसार, यदि वैश्विक तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस के नीचे तक सीमित किया जाएगा, तो भी वर्ष 2100 तक पर्माफ्रॉस्ट का लगभग 25% हिस्सा पिघल सकता है। और यदि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन मौजूदा गति से जारी रहा तो यह आँकड़ा 70% तक भी पहुँच सकता है।
  • पर्माफ्रॉस्ट दो तरीके से पिघल सकते हैं। पहला, आसपास की वायु का तापमान बढ़ने से धीरे-धीरे किंतु स्थाई रूप से पिघल सकते हैं। दूसरे, अपने भीतर विशाल मात्रा में जमी बर्फ के पिघलने से भी पर्माफ्रॉस्ट पिघलने लगते हैं। ऐसे में, पिघलती हुई ज़मीन अचानक दरकने लगती है और वृहत् गड्ढों, झीलों तथा दलदली क्षेत्र का निर्माण होने लगता है।
  • इसके अतिरिक्त, पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने के कारण भूस्खलन भी आते हैं तथा पर्वतीय एवं तटीय क्षेत्रों का क्षरण होता है। 

वैश्विक सुरक्षा संबंधी निहितार्थ

  • पर्माफ्रॉस्ट वाले क्षेत्रों में सैनिक-असैनिक बुनियादी ढाँचे के क्षतिग्रस्त होने का भी गंभीर खतरा रहता है। खतरे की परिधि में 'एवलॉन्श कंट्रोल सिस्टम' से संबंधित अवसंरचना भी शामिल होती है, जो स्थानीय लोगों के साथ-साथ पर्यटकों की सुरक्षा के दृष्टिकोण से बेहद आवश्यक होती हैं।
  • गौरतलब है कि आर्कटिक क्षेत्र में कई देशों के सैन्य अड्डे स्थित हैं। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से यहाँ कई अग्निशमन केंद्र नष्ट हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त, सड़कों और मकानों की स्थिति भी बेहद संवेदनशील है।
  • तटीय क्षेत्रों में रहने वाले कुछ समुदायों को अपना मूलस्थान छोड़कर सुरक्षित क्षेत्रों में जाने को विवश हुए हैं। आर्कटिक में विद्यमान समस्त अवसंरचना का लगभग 70% भाग उस क्षेत्र में अवस्थित है, जहाँ वर्ष 2050 तक पर्माफ्रॉस्ट के तेज़ी से पिघलने का अनुमान है।
  • आर्कटिक में मौजूद तेल और गैस से संबंधित ढाँचों के लिये भी गंभीर स्थिति उत्पन्न हो गई है। रूस के आर्कटिक क्षेत्र में स्थित हाइड्रोकार्बन की निकासी वाले विशाल भू-क्षेत्र के करीब 45 प्रतिशत भाग को वर्ष 2050 तक भारी तबाही का सामना करना पड़ सकता है। यहाँ मौजूद कई पाइपलाइनों के लिये बेहद जोखिम भरी स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना आगामी वर्षों में मानव सुरक्षा के लिये एक गंभीर चुनौती बन सकता है। पिघलता हुआ पर्माफ्रॉस्ट अपने अंदर दीर्घकाल से दबे तत्त्वों को वातावरण में उत्सर्जित करता है, जो खतरनाक साबित हो सकते हैं। उत्सर्जित होने वाली जैविक गैसें आगे ग्रीन हाउस गैस में परिवर्तित हो जाती हैं। इससे निकलने वाला पारा मनुष्यों तथा पशुओं के लिये ज़हरीला हो सकता है। पारे की मात्रा में बढ़ोतरी खाद्य सुरक्षा के लिये भी चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
  • इसके अतिरिक्त, पर्माफ्रॉस्ट के नीचे हज़ारों वर्षों से दबे विषाणु भी गंभीर प्रभाव दर्शा सकते हैं। वातावरण में पहुँचते ही ये तत्व गतिशील हो जाते हैं और मानव स्वास्थ्य के लिये खतरा उत्पन्न कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, वर्ष 2016 में साइबेरिया में पिघले पर्माफ्रॉस्ट ने रेनडियर के एंथ्रैक्स से संक्रमित 70 वर्ष पुराने कंकाल को सतह पर ला दिया था।
  • अज्ञात विषाणुओं का उभरना संपूर्ण विश्व के लिये सामाजिक-आर्थिक और भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से विनाशकारी साबित हो सकता है। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को पर्माफ्रॉस्ट कार्बन फीडबैक खा जाता है।
  • ऐसी परिस्थिति से प्रभावित लोगों के मध्य उपलब्ध संसाधनों के लिये 'गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा' शुरू हो जाएगी, जैसा कि कोविड-19 महामारी के दौरान देखने को मिल रहा है। 

नीति-निर्माण से संबंधित निहितार्थ

  • पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना जलवायु परिवर्तन से संबंधित एक विशिष्ट पहलू है। यद्यपि इससे संबंधित आँकड़ों को लेकर कुछ मतभेद हैं, लेकिन शोधकर्ताओं का मानना है कि पर्माफ्रॉस्ट ग्रीनहाउस गैसों का बड़ा स्रोत हो सकते हैं। पर्माफ्रॉस्ट जैसे-जैसे कार्बन का उत्सर्जन करेंगे, जलवायु परिवर्तन की समस्या गंभीर होती चली जाएगी। फिर तापमान बढ़ने से पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने की दर भी बढ़ेगी तथा कार्बन उत्सर्जन में पुनः वृद्धि होगी तथा यह कुचक्र ऐसे ही चलता रहेगा।
  • उल्लेखनीय है कि आई.पी.सी.सी. ने वर्ष 2018 से पहले तक पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से उत्सर्जित होने वाले कार्बन को अपने प्रेक्षणों में शामिल नहीं किया था। इसलिये आई.पी.सी.सी. के पूर्वानुमानों में वैश्विक उष्मन के प्रभाव को कम करके आँका गया था। वर्ष 2015 के पेरिस समझौते से संबंधित लक्ष्यों को तय करने में भी इसी मॉडल को अपनाया गया था।
  • पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना यह दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण से ही संबद्ध नहीं है, बल्कि इसके गंभीर सुरक्षा प्रभाव भी हो सकते हैं। सुरक्षा संबंधी पारंपरिक खतरों, जैसे– सैन्य क्षमता, परमाणु प्रसार, आतंकवाद, साइबर हमले आदि की तरह ही जलवायु परिवर्तन भी नीति-निर्माताओं के लिये सुरक्षा स्थितियों को बेहतर ढंग से समझने में मददगार साबित हो सकती है।
  • ऐसी स्थिति में अनेक देश और अंतर्राष्ट्रीय संगठन सुरक्षा संबंधी मूल्यांकनों, नीतियों और ढाँचागत क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन से संबंधित कारकों को भी शामिल करने लगे हैं। इतना ही नहीं, कुछ देशों की सेनाओं ने भी जलवायु परिवर्तन के अनुसार स्वयं को अनुकूलित करना शुरू कर दिया है। 

उपाय

  • वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में कमी करके पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने की दर घटाई जा सकती है। इससे मौजूदा व भावी बुनियादी ढाँचे को इस स्थिति के अनुकूल बनाया जा सकता है।
  • प्रभावित देशों के साथ मिलकर इससे निपटने के लिये बेहतर रणनीति बनाई जा सकती है। निजी क्षेत्र और नागरिक समाज वर्तमान में प्रचलित उत्कृष्ट तौर-तरीकों को आपस में साझा करते हुए जलवायु क्षमता-निर्माण के क्षेत्र में सहयोग कर सकते हैं।
  • पर्माफ्रॉस्ट आधारित कार्बन उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ संबंधित सुरक्षा चुनौतियों को भी कम किया जा सकता है। यही तेज़ी से कदम उठाए जाएँ तो इससे होने वाले नुकसान को आधा किया जा सकता है। गौरतलब है कि कोई कदम नहीं उठाया गया तो करीब 70 खरब अमेरिकी डॉलर का नुकसान हो सकता है। यदि समय रहते वैश्विक उष्मन को5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित नहीं किया गया तो इससे लगभग 25 खरब डॉलर का नुकसान होगा।
  • पर्माफ्रॉस्ट पिघलने संबंधी हालिया अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करने के लिये वर्ष 2050 या 2044 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पूर्णत: नियंत्रित करना होगा।
  • जलवायु परिवर्तन संबंधी लक्ष्य हासिल करने में 126 देशों ने ही रूचि दिखाई है और वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में इनका योगदान केवल 51% है। दिसंबर 2020 में संपन्न हुए जलवायु संबंधी सम्मेलन में स्पष्ट किया गया कि वर्ष 2050 तक इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये काफी कुछ किया जाना शेष है। 

निष्कर्ष

  • ‘पर्माफ्रॉस्ट’ जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यंत संवेदनशील होते हैं। विश्व के विभिन्न भागों में ये तेज़ी से पिघल रहे हैं। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने का पर्यावरण व सुरक्षा परिदृश्य, दोनों पर बहुआयामी प्रभाव पड़ते हैं। ये प्रभाव प्रत्यक्ष व परोक्ष, वर्तमान एवं भावी तथा स्थानीय और वैश्विक हो सकते हैं।
  • पेरिस समझौते के 5 वर्ष उपरांत नीति-निर्माताओं के एजेंडे में पर्माफ्रॉस्ट के मुद्दे को महत्त्व मिलने की संभावना बनी है। पेरिस समझौते के लक्ष्य हासिल करने के लिये और अधिक ठोस कदम उठाने होंगे।
  • पर्माफ्रॉस्ट पिघलने संबंधी मामलों में जैसे-जैसे वैज्ञानिक प्रगति होती जाएगी, इससे संबंधित सुरक्षा मुद्दों तथा इसके वैश्विक प्रभावों को समझना भी आसान होता चला जाएगा।
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