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विकलांग/दिव्यांग व्यक्तियों के लिये सामाजिक न्याय पर संयुक्त राष्ट्र के दिशानिर्देश

(प्रारम्भिक परीक्षा: राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र -2: विषय- केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय।)

संयुक्त राष्ट्र संघ ने हाल ही में पहली बार विकलांग/दिव्यांग व्यक्तियों के लिये सामाजिक न्याय तक पहुँच को सुनिश्चित किये जाने के बारे में दिशा-निर्देश जारी किये हैं, जिससे उन्हें दुनिया भर में न्याय प्रणालियों तक बिना किसी अवरोध के पहुँचने में आसानी हो सके।

विकलांगता- एक समग्र अवलोकन:

  • सर्वप्रथम संयुक्त राष्ट्र के द्वारा1980 का दशक अशक्तजनों का दशक घोषित किया गया था। वर्ष 1987 में एक वैश्विक बैठक में इसके प्रगति की समीक्षा की गई और यह अनुशंसा की गई कि संयुक्त राष्ट्र महासभा को अशक्तजनों के विरुद्ध भेदभाव के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय तैयार करना चाहिये।
  • ड्राफ्ट अभिसमय की रूपरेखा इटली द्वारा प्रस्तावित की गई एवं उसके पश्चात् स्वीडन ने ऐसा कियालेकिन किसी प्रकार की सहमति पर किसी भी देश या संस्थान द्वारा नहीं पहुँचा जा सका।
  • कई सरकारी प्रतिनिधियों ने तर्क दिया कि मौजूदा मानवाधिकार दस्तावेज़ पर्याप्त थे। इसके बावजूद, वर्ष 1998 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने गैर-अपरिहार्य स्टैण्डर्ड रूल्स ऑन द इक्वलाइज़ेशन ऑफ अपार्च्युनिटीज़ फॉर पर्सन्स विद डिसेबिलिटीज़ (The Standard Rules on the Equalization of Opportunities for Persons with Disabilities) को अपनाया।
  • वर्ष 2000 में पांच अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठनों के नेताओं ने अभिसमय का सभी सरकारों द्वारा समर्थन करने का आह्वान करने के लिये बीजिंग घोषणा जारी की।
  • संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अभिसमय पर बातचीत करने के लिये वर्ष 2001 में एक तदर्थ समिति की स्थापना की। पहली बैठक अगस्त 2002 में आयोजित की गई और मसौदा बनाने का कार्य मई 2004 में शुरू किया गया। तदर्थ समिति के प्रतिनिधि मण्डल में एन.जी.ओ,सरकारें, राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थान और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का प्रतिनिधित्व होता है।
  • यह पहला समय था कि जब विभिन्न एन.जी.ओ. ने मानवाधिकार यंत्र के निर्माण में सक्रिय भागीदारी निभाई।
  • 21 वीं सदी में मानव अधिकारों के पहले प्रमुख साधन के रूप में अंततः विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UN Convention on the Rights of Persons with Disabilities-UNCRPD) को अपनाया गया था।संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इसके मसौदे को 13 दिसम्बर, 2006 को स्वीकार किया गया और 30 मार्च, 2007 को हस्ताक्षर के लिये रखा गया। 20 पक्षों द्वारा इसकी पुष्टि के बाद 3 मई, 2008 को यह अभिसमय प्रवृत हो गया। वर्तमान में इसके 163 हस्ताक्षरकर्ता देश हैं एवं 181 देशों ने इसकी पुष्टि की है।
  • अशक्त जनों के अधिकारों का सम्वर्धन-संरक्षण,उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार, आवास एवं पुनर्वास, राजनीतिक जीवन में सहभागिता और समानता तथा भेदभाव रहित व्यवहार जैसे कई महत्त्वपूर्ण बिंदु इस अभिसमय में शामिल हैं।
  • अभिसमय के अनुच्छेद 4-32 अशक्तजनों के अधिकारों को परिभाषित करते हैं और उनके प्रति राज्यों/देशों के दायित्त्व की बात करते हैं। इनमें से अधिकतर अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र के अन्य अभिसमयों में पुष्टि हुई है। गौरतलब है कि अभिसमय में कुल 50 अनुच्छेद हैं।
  • अभिसमय उन व्यक्तियों को विकलांग व्यक्तियों के तौर पर परिभाषित करता है जो “दीर्घावधि, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी विकारों” से ग्रस्त हैं। अभिसमय के अनुसार, विकलांग व्यक्तियों के विकारों और समाज के रूख़ के कारण अक्सर अन्य सामान्य व्यक्तियों की तरह समाज में शामिल होने या भागीदारी करने से रोका जाता है या उन्हें कमतर आँका जाता है।
  • अभिसमय के सिद्धांत विकलांग व्यक्तियों को मानव समाज के अभिन्न अंश के रूप में स्वीकार करने पर आधारित हैं। विकलांग व्यक्तियों को नज़रअंदाज़ करने पर समाज उन्हें अशक्त कर देता है। यदि उन्हें सम्मिलित किया जाता हैतो वे सम्पूर्ण और खुशहाल जीवन जी सकते हैं और समाज में अपना समुचित योगदान दे सकते हैं।
  • पूरे विश्व में विकलांग व्यक्तियों को मानवाधिकारों तक वह पहुँच प्राप्त नहीं है जो अन्य व्यक्तियों को है। विकलांगता अभिसमय एक विश्वव्यापी मानवाधिकार अभिसमय है। यह विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को स्पष्ट करता है।
  • हालाँकि यह ध्यान देने वाली बात है कि यह अभिसमय विकलांग व्यक्तियों को नए मानवाधिकार नहीं देता है। यह इस बात को स्पष्ट करता है कि उनके अधिकार भी वही हैं जो किसी अन्य आम व्यक्ति के हैं। यह सरकारों को बताता है कि किस प्रकार यह सुनिश्चित किया जाए कि विकलांग व्यक्तियों को उनके अधिकारों तक पहुँच प्राप्त हो।
  • इसका उद्देश्य सभी विकलांग व्यक्तियों के लिये समान मानवाधिकारों और स्वतंत्रता को बढ़ावा देना, इनकी सुरक्षा करना और इन्हें सुनिश्चित करना हैऔर विकलांग व्यक्तियों की प्रतिष्ठा के लिये सम्मान का प्रचार करना है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा दिये गएदिशा निर्देशों की मुख्य विशेषताएँ:

दिव्यांग जनों के लिये सामाजिक न्याय को सुनिश्चित किये जाने को लेकर संयुक्त राष्ट्र द्वारा दिये गए निर्देशों में मूलतः 10 प्रमुख सिद्धांतों की बात की गई है, जो निम्न हैं:

  • सिद्धांत 1: सभी दिव्यांग व्यक्ति कानूनी सहायता प्राप्त करने के योग्य और इसलिये किसी को भी विकलांगता के आधार पर न्याय तक पहुँचने से वंचित नहीं रखा जा सकता।
  • सिद्धांत 2: किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना दिव्यांग व्यक्तियों तक न्याय की समान पहुँच सुनिश्चित करने के लिये सुविधाएँ और सेवाएँ सार्वभौमिक रूप से सुलभ होनी चाहिये।
  • सिद्धांत 3: विकलांग बच्चों सहित सभी दिव्यांग जनों कोउचित प्रक्रियात्मक आवास का अधिकार (appropriate procedural accommodations) है।
  • सिद्धांत 4: अन्य व्यक्तियों की तरह दिव्यांग जनों को भी कानूनी नोटिस और सूचना को समय पर और सुलभ तरीके से प्राप्त करने का अधिकार है।
  • सिद्धांत 5: अंतर्राष्ट्रीय कानून में अन्य व्यक्तियों के तरह ही दिव्यांग जन भी सभी मूल और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के हकदार हैंऔर सभी राज्यों/देशों को इससे जुड़ी सभी यथोचित प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करना चाहिये।
  • सिद्धांत 6: दिव्यांग जनों को मुफ़्त या सस्ती कानूनी सहायता का अधिकार है।
  • सिद्धांत 7: दिव्यांग जनों को अन्य व्यक्तियों की तरह ही न्यायाधिकार से जुड़े क्षेत्रों को प्रशासित करने व उनसे जुड़ने का अधिकार है।
  • सिद्धांत 8: दिव्यांग जनों के पास उनके मानवाधिकारों के उल्लंघन एवं उनके साथ हुए अपराधों से सम्बंधित सूचना देने पर कानूनी कार्यवाही केतहत, शिकायतों की यथा सम्भव जाँच और प्रभावी न्याय प्राप्त करने के अधिकार हैं।
  • सिद्धांत 9: दिव्यांग व्यक्तियों के लिये न्याय तक पहुँच को सुलभ बनाने में प्रभावी और मज़बूत निगरानी तंत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उनकी पहुँच सुनिश्चित करना भी देशों का कर्त्तव्य है।
  • सिद्धांत 10: न्याय प्रणाली से जुड़े सभी व्यक्तियों को इस बात विधिवत शिक्षा दी जानी चाहिये कि न्याय के लिये आये किसी दिव्यांग व्यक्ति की किस प्रकार सहायता की जाए।

भारत में दिव्यांगजन:

  • सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग भारत में दिव्यांग व्यक्तियों को सशक्त बनाने के लिये कार्य करता है।
  • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में दिव्यांग जनों की कुल जनसंख्या 2.68 करोड़ है, जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 2.21 % है। इसमें से लगभग 55.89% पुरुष और 44.11% महिलाएँ हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगों की संख्या शहरों की तुलना में कहीं अधिक है। भारत में दिव्यांगों की कुल जनसंख्या का 69.45% ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती है।
  • वर्ष 2011की जनगणना के अनुसारदेश की 45 % विकलांग आबादी अशिक्षित है। दिव्यांगों में भी जो शिक्षित हैं, उनमें 59 % मात्र 10वीं पास हैं।
  • भारत में सर्वशिक्षा अभियान के तहत सभी को एक समान शिक्षा देने का प्रावधान है, इसके बावजूद शिक्षा व्यवस्था से बाहर रहने वाली आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा दिव्यांग बच्चों का है। 6-13 आयुवर्ग के दिव्यांग बच्चों की 28 % आबादी स्कूलों से दूर है
  • दिव्यांगों के बीच ऐसे बच्चे भी हैं जिनके एक से अधिक अंग अपंग हैं,जिनकी 44 % आबादी शिक्षा से वंचित है। जबकि मानसिक रूप से दिव्यांग 36 % बच्चे और बोलने में अक्षम 35 % बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। भारत सरकार द्वारा दिव्यांग बच्चों को स्कूल में भर्ती कराने हेतु यद्यपि कई कदम उठाए गए हैं इसके बावजूद आधे से अधिक दिव्यांग बच्चे स्कूल जा पाने में अक्षम हैं।

आगे की राह

  • दिव्यांग जनों के सामाजिक न्याय की बात की जाए तो विभिन्न पहलुओं पर सरकार को आगे आने की आवश्यकता है एवं राष्ट्रीय स्तर पर एक समेकित नीति बनाने और उसके उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने की ज़रुरत है।
  • भारत को संयुक्त राष्ट्र द्वारा दिये गए निर्देशों पर भी ध्यान देते हुए इनके उचित एवं विधिसम्मत क्रियान्वयन के लिये आगे आना चाहिये।
  • भारत में दिव्यांगजनों की सहायता और सहायक उपकरणों के सम्बंध में अनुसंधान और विकास को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न सुविधाओं तक उनकी पहुँच को आसान बनाया जा सके। साथ ही स्मार्ट सिटी और शहरी सुविधाओं की बेहतरी पर जोर देते हुए दिव्यांगजनों की चिंताओं को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
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