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नई वैश्विक जलवायु नीति के विभिन्न पक्ष

(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन संबंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 & 3 –द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से संबंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन।)

संदर्भ

संयुक्त राष्ट्र संघ (UN) की संस्था ‘जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल’ (IPCC) की हालिया रिपोर्ट में  नीतिगत महत्त्व को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि केवल ‘नेट ज़ीरो’ के लक्ष्य तक पहुँचना ही पर्याप्त नहीं होगा।

पृष्ठभूमि

  • विगत 30 वर्षों से जलवायु वार्ता एक ऐसे ‘फ्रेम’ के साथ संघर्ष कर रही है, जिसने वैश्विक ‘कार्बन स्पेस’ साझा करने वाले देशों के मध्य असंतुलन को बढ़ा दिया है।
  • आर्थिक विकास ने ‘कार्बन स्पेस’ को कम कर दिया है, जिससे जलवायु परिवर्तन संबंधी समस्या उत्पन्न हो रही है। इसके लिये विकासशील देशों पर समाधान ढूँढने के लिये दबाव डाला जा रहा है।
  • जुलाई में जी-20 की जलवायु और ऊर्जा मंत्रिस्तरीय बैठक में भारत ने प्रस्तावित किया कि प्रमुख अर्थव्यवस्थाएँ वर्ष 2030 तक अपने ‘प्रति व्यक्ति उत्सर्जन’ को वैश्विक औसत तक नीचे लाएँ।
  • प्रति व्यक्ति उत्सर्जन या मानव कल्याण के संदर्भ में ‘जलवायु बातचीत’ को पुनः परिभाषित करना इसलिये भी ज़रूरी है क्योंकि जी-7 द्वारा प्रस्तावित ‘वर्ष 2050 तक वैश्विक नेट ज़ीरो’ की प्राप्ति से मानव कल्याण प्रभावित होगा। इस प्रकार, यह वैश्विक नीति के रूप में अस्वीकार्य होनी चाहिये।   
  • प्रति व्यक्ति उत्सर्जन स्तर अलग-अलग होने के कारण ऐसी अर्थव्यवस्थाएँ, जो पहले ही अपने ‘उचित हिस्से’ का उपयोग कर चुकीं हैं, उनकी तुलना भारत जैसे देश, जिनका कार्बन स्पेस अभी भी ज़्यादा है, उन्हें मानव कल्याण के लिये उत्सर्जन में छूट देने की आवश्यकता है।      

प्रति व्यक्ति उत्सर्जन

  • विभिन्न देशों के मध्य प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की तुलना करने से नीतिगत संतुलन स्पष्ट हो जाता है।
  • वर्तमान में, वैश्विक प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 6.55 टन कार्बन डाइऑक्साइड है।
  • 1.96 टन के साथ भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत के एक-तिहाई से भी कम है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया का उत्सर्जन वैश्विक औसत से ढाई गुना अधिक है।
  • जर्मनी, यूनाइटेड किंगडम और फ्राँस भी वैश्विक औसत से ऊपर हैं, जबकि चीन 6.4 टन उत्सर्जन के साथ वैश्विक औसत से नीचे है।
  • भारत इस तथ्य का विरोध कर रहा है कि जलवायु संधि का उद्देश्य ‘ग्रीनहाउस गैस सांद्रता का स्थिरीकरण’ करना है।
  • उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप की कुल जनसंख्या वैश्विक जनसंख्या की एक-चौथाई है, जबकि ‘वैश्विक संचयी उत्सर्जन’ में इनका योगदान 60 प्रतिशत है और ये 970 बिलियन टन कार्बन उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार हैं।
  • विश्व का शेष कार्बन बजट, जिस पर उष्मन को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सकता है, उसकी मात्रा केवल 400 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड है। 
  • उक्त आँकड़ा अमेरिका के कुल उत्सर्जन के लगभग बराबर है। इसलिये, वैश्विक सहमति के लिये ऐसे देशों को ‘नई जलवायु नीति’ में लचीलेपन की आवश्यकता होगी।

उत्सर्जन के स्रोत

  • जलवायु नीति को निर्धारित करने में ‘उत्सर्जन आवश्यकता’ को न्यायोचित ठहराने पर ज़ोर दिया जाना चाहिये।
  • शहरीकरण एवं जीवन की गुणवत्ता के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचा व ईंधन का दहन वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 40 प्रतिशत तथा कुल उत्सर्जन में 25 प्रतिशत का योगदान देते हैं।
  • यह उत्सर्जन ऊर्जा-गहन सीमेंट उत्पादन तथा निर्माण में प्रयुक्त स्टील के आधे हिस्से से उत्पन्न होता है।
  • प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के अलग-अलग स्तरों का अनुपात वर्ष 1950 से 2000 के मध्य अमेरिका एवं यूरोप में ‘एक्सप्रेसवे और अर्बन बूम’ के कारण हुआ है।
  • चीन द्वारा बुनियादी ढाँचे पर व्यापक निवेश के बावजूद भी अमेरिका और यूरोप की ‘प्रति व्यक्ति सामग्री’ का उपयोग चीन के चार गुने से अधिक है।

‘जलवायु न्याय’ के निहितार्थ

  • भारत द्वारा प्रतिपादित ‘जलवायु न्याय’ संबंधित विचार के तीन रणनीतिक निहितार्थ हैं-
  1. प्राकृतिक संसाधनों केचालकों और प्रतिरूपों' पर ध्यान केंद्रित करना तथा मानवजनित उत्सर्जन के साथ-साथ उत्सर्जन के कारण और समाधान पर भी ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है।
  2. आई.पी.सी.सी. रिपोर्ट ने दोहराया है कि समुद्र स्तर में वृद्धि, वर्षा की परिवर्तनशीलता तथा उष्मन में वृद्धि जैसे प्रभाव उत्सर्जन में गिरावट के बाद भी कुछ समय के लिये अपरिवर्तनशील होंगे।
  3. परिणामस्वरूप, बहुपक्षीय सहयोग अंतर्राष्ट्रीय कानूनों द्वारा निगरानी की जगह आम सहमति के आधार पर एक सार्वभौमिक मानव अधिकार के रूप में परिवर्तित हो जाएगा।

जलवायु परिवर्तन वार्ताओं के मुद्दे

  • इस बात पर संवाद की आवश्यकता है कि समाज क्या महत्त्व रखता है? और क्या सामाजिक प्राथमिकताएँ या बाज़ार विनिमय यह निर्धारित करते हैं कि कैसे मूल्य, उत्पादन और उपभोग होना चाहिये।
  • शहरी मध्यम वर्ग का उपभोग प्रतिरूप अब उत्पादन से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। यह स्पष्ट हो गया है कि गरीबों की बढ़ती समृद्धि और बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता जीवन समर्थन प्रणालियों को खतरे में नहीं डाल रही है।
  • विभिन्न सभ्यतागत मूल्यों के साथ विकासशील देशों में मध्यम वर्ग द्वारा की गई खपत शहरीकरण के पहले चरण की तुलना में कम हानिकारक है।

िष्कर्ष

  • जलवायु परिवर्तन केवल एक पर्यावरणीय या सतत् विकास संबंधी चिंता नहीं है, बल्कि इसमें समझौताकारी आयाम भी शामिल हैं।
  • इसके लिये सभ्यतागत रूपांतरण की आवश्यकता है कि हम किन मूल्यों को महत्त्व देते हैं, जीवनशैली कैसी है तथा हम एक-दूसरे के साथ कैसे संवाद करते हैं।
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